________________ उल्ललास महाश्वासो, विमलो व्याकुलोऽभवत् / वैद्यमण्डलमाहूय, कारिता भेषजक्रिया ... // 228 // विशेषो न तया जातो, विमलो रत्नमस्मरत् / गतो वनप्रदेशं तं, यत्नतस्तनिरूपितम् .. // 229 // अदृष्ट्वा तत्र तद् रत्न, हा जीविष्यत्यसौ कथम् / इति चिन्तापरोऽभ्यर्णं, विमलो मे समागतः // 230 // अत्रान्तरे प्रादुरभूदेका वृद्धनितम्बनी / करालरूपा निर्मुक्तफेत्कारा विलुलत्कचा // 231 // भीतो जनः कृता पूजा, पृष्टा धूपं प्रदाय सा। .. का त्वं भट्टारिकेऽसीति, साऽऽहास्मि वनदेवता // 232 // मयैव वामदेवोऽयं, विहितो मृतसन्निभः / यदनेनापदम्भोऽपि, विमलो वञ्चितः सुहृत् // 233 // अस्य रत्नं हृतं न्यस्तं, प्रदेशेऽन्यत्र पाप्मना / गृहीत्वा तद्धिया नष्टः, पाषाणं पुनरागतः // 234 // दृष्ट्वा ग्रन्थिस्थपाषाणमानीतो राजपुरुषैः / . आलजालमिदं चक्रे, वृत्तमित्यखिलं मम // 235 // वनदेवतया प्रोक्तं, तद्देशस्थं च दर्शितम् / / रत्नमाह च सा दुष्टो, हन्तव्योऽयं मयाऽधुना // 236 // विमलः प्राह मा कार्षीरित्थमस्यानघे ! व्यथाम् / निहतोऽहं भविष्यामि, हते ह्यस्मिंस्तपस्विनि // 237 // वनदेवतया मुक्तो, विमलप्रार्थनात् ततः / हसितो बालसार्थेन, निखिलैर्निन्दितो जनैः . // 238 // बहिष्कृतोऽहं स्वजनैलघु जातस्तृणादपि / . . तथापि प्राक्तनस्थित्या, विमलो मां विलोकते . . // 239 //