________________ // 192 // // 193 // // 194 // // 195 // // 196 // // 197 // ततः पुरे गतावावामहं स्वभवने गतः / विजृम्भिते बहुलिकास्तेये मम शरीरके ततोऽवलम्ब्य नीचत्वमपर्यालोच्य चायतिम् / विस्मृत्य विमलस्नेहं, स्मृत्वा रत्नं महागुणम् तज्जिहीर्षन्नहं तत्र, प्रदेशे सहसा गतः / उत्खातं तत् ततो देशानिखातं चापरस्थले निखातः तत्प्रदेशे च, पाषाणस्तन्मितो मया / विमलो वेत्त्वपुण्र्मे, ग्रावीभूतमिदं त्विति ततः समागतो गेहं, लङ्कितं तद्दिनं मया / आगता रजनी जाता, चिन्ता सुप्तस्य मे तदा नानीतं यद्गृहे रत्नं, विरूपं तत्कृतं मया। . दृष्टं तदा तदन्येन, हृतं हन्त भविष्यति अधुना किं करोमीति वितर्काकुलचेतसः / . विनिद्रस्य व्यतीयाय, रात्रिर्मे दुःखसाक्षिणी प्रभाते द्रुतमुत्थाय, तं प्रदेशमहं गतः / समागतो मद्भवने, विमलो विमलाशयः न दृष्टोऽहं गृहे तेन, पृष्टः परिजनो मम / व वामदेवः स गतः, क्रीडानन्दनमित्यवक् ततो मदनुमार्गेण, विमलोऽपि समागतः / / दूराद् दृष्टो मयाऽऽगच्छन्, जातोऽहं व्याकुलो भिया रत्नप्रदेशं विस्मृत्यादाय पाषाणमञ्जसा / संगोप्य तं कटीपट्या, गतोऽहं गहनान्तरे संप्राप्तो विमलस्तत्र, दृष्टोऽहं भयविह्वलः / / पृष्टं मित्र ! किमेकाकी, भीतोऽसि किमिहागतः // 198 // // 199 // // 200 // // 201 // // 202 // // 203 //