________________ // 672 // // 673 // // 674 // // 675 // // 676 // 677 // ततो विश्रम्भमाप्तोऽहं, पृष्टो व्यतिकरं त्वया / कथितश्च मया स्वीयवृत्तान्तो विस्तरादयम् . . वार्ता समन्तभद्रादेस्त्वत्प्रतीताऽपि योदितां / सा त्वत्प्रत्ययसिद्ध्यर्थं, तज्जातः प्रत्ययस्तव सा प्राह बाढं जातो मे, प्रत्ययो वचने तव / परं त्वं चक्रवर्ती चेत्, किमीगिति मे वद स प्राह भद्रे ! युवयोः, प्रतिबोधाय निर्मितम् / मयेदं तास्करं रूपं, प्रोक्तं भगवता यतः, भवतां पुरतश्चौर्य, समुद्दिश्याहमान्तरम् / .. चौरः संसारिजीवोऽयं, वध्यो नीयत इत्यहो मया गतायां च महाभद्रायां मम सम्मुखम् / तदर्शनात् प्रबुद्धेन, मनसीदं विचिन्तितम्' यद्यप्येषा महाभद्रा, जानात्येव गुरूदितम् / प्रज्ञाविशाला सकलं, चौर्यमाभ्यन्तरं मम वार्ताया गन्धमप्यस्या, वेत्त्यद्यापि तथाऽपि न / अगृहीतार्थसङ्केता, मुग्धा सुललिता ततः विप्रत्ययो भवेद् दृष्ट्वा, रूपं मे चक्रवर्तिनः / सदागमवचस्यस्या, उक्तव्यत्ययशङ्कया किं चासौ पौण्डरीकोऽपि, प्रतिबुद्धो भविष्यति / एतन्मदीयवृत्तान्तं, श्रुतिद्वारैव भावुकः इति ध्यात्वा कृतं रूपमन्तश्चौर्यस्य सूचकम् / वैक्रिया बहिरपि, स्फुटमेवंविधं मया जगौ सुललिता कीदृग्, भावचौर्यं कृतं त्वया / कथं वा परवृत्तान्तं, जानासीत्यखिलं वद // 678 // // 679 / / // 680 // // 681 // // 682 // . // 683 // 242