________________ // 684 // // 685 // // 686 // // 687 // // 688 // // 689 // अथानुसुन्दरोऽवादीदन्त्यौवेयकादहम् / सुकच्छविजये क्षेमपुर्यां जातो महोदयः अत्रान्तरे महामोहादयः प्रत्यर्थिनो मम / भवितव्यतया लब्ध्वा, छलं प्रोत्साहिता इति दूरस्थो यावदेषोऽस्ति, सम्यक्त्वादनुसुन्दरः / तावत् सर्वबलं कृत्वा, यतध्वं स्वार्थसिद्धये अन्यथा स्वबलं लब्ध्वा, प्राग्वदेष भविष्यति / बाधाकृद् वस्तदधुना, किङ्करीक्रियतामयम् ततस्तत्प्रेरितै ढं, वल्गद्भिरनियन्त्रितैः / वशीकृतस्तैराबाल्यादहं तन्मयतां गतः ततस्तैः स्वीयवीर्येण, कृतः पापपरायणः / . कौमारे वर्तमानोऽहं, मद्यमांसरतोऽभवम् प्रसह्य पारदार्यादौ, प्रवृत्तौ यौवने प्रभुः / . चक्रित्वे सेविता दोषाः, पापाद्याः सहस्रशः ततो लब्धप्रचारैस्तैर्नितरां मलिनीकृता / द्विषद्भिः चित्तवृत्तिर्मे, सुहृत्सैन्यं तिरस्कृतम् तिरोहितं च क्षान्त्यादिशुच्यन्तःपुरमान्तरम् / राज्याद् बहिष्कृतश्चाहं, कर्मवीर्यं प्रकाशितम् तदा पापोदयो दीप्तो, मोहसैन्यं प्रवल्गितम् / जातानि तत्पुरादीनि, वो(चो)ढा सिन्धुः प्रमत्तता विस्तृतं तद्विलसितं पुलिनं मण्डपो नवः / उद्भूतश्चित्तविक्षेपस्तृष्णाऽभूद् वेदिकाऽद्भुता संस्कृतं च विपर्यासविष्टरं परिपोषिता / अविद्याऽऽख्या गात्रयष्टिर्महामोहेन भूभुजा // 690 // // 691 // // 692 // // 693 // // 694 // // 695 // 243