________________ स प्राह चित्ते यद्यम्बातातयोः प्रतिभाति मे / तदागमार्थं गृह्णामि, गुरोरस्यैव सन्निधौ // 648 // महाभद्राऽथ तं भावं, श्रीगर्भाय महीभुजें / जगाद कमलिन्यै च, जातो हर्षस्तयोर्महान् // 649 // दत्तस्ताभ्यां भगवतः, स महाभद्रया सह / सततं याति तत्पार्श्वे, कुरुतेऽभ्यासमागमे // 650 // व्याचक्षाणेऽन्यदाऽऽचार्य; धर्मं शृण्वत्सु देशनाम् / महाभद्रासुललितापुण्डरीकेषु भाविषु // 651 // लोके धर्मकथाऽऽक्षिप्ते, बलकोलाहलो मम / समुल्ललास तच्छ्रुत्वा, पर्षदुत्कणिताऽखिला // 652 // ततः सुललिता प्राह, महाभद्रामिदं तु किम् / / सा प्राह नास्मि जानामि, जानाति भगवान् परम् // 653 // अथ प्रभुः सुललितापुण्डरीकप्रबुद्धये / इमं रूपकगूढार्थमाचचक्षे विचक्षणः . . // 654 // महाभद्रे ! न जानीषे, ख्यातेयं नृगतिः पुरी। महाविदेहरूपोऽयं, हट्टमार्गोऽत्र विश्रुतः // 655 // चौरः संसारिजीवोऽत्र, सलोप्तो दाण्डपाशिकैः / राज्ञे क्रूराशयैः कर्मपरिणामाय दर्शितः // 656 // तेन वध्यतयाऽऽज्ञप्तः, पृष्ट्वा भार्यां च बान्धवान् / कोलाहलैः प्रसृमरैर्वेष्टितो राजपुरुषैः // 657 // बहिः पुर्या विनिस्सार्य, हट्टमार्गस्य मध्यतः / नीत्वा वध्यस्थले पापिपञ्जरे मारयिष्यते // 658 // श्रूयते कर्णनिर्घाती, सोऽयं कोलाहलो महान् / प्राप्ता सुललिताऽऽश्चर्यं, तत् श्रुत्वाऽऽह प्रवर्तिनीम् / // 659 // 240