________________ // 444 // // 445 // // 446 // // 447 // // 448 // // 449 // मन्दाक्षलक्ष्या निःस्पन्दाः, स्थिताः पापोदयादयः / पार्श्वे सविद्यः सद्बोधस्तव निर्विघ्नमागतः / हर्षोल्लासस्ततस्तेऽभूत्, परिणीता च कन्यका / राजस्त्वयाऽखिलं तत्त्वं, ज्ञातमेव ततः परम् तदिदं भावनावृद्धः, कारणं तव भूपते ! / हर्षोल्लासस्य चोत्पन्नं, रजन्यां नात्र संशयः मयोक्तमधुना किं ते, कुर्वन्ति मम शत्रवः / भगवन्नाह भूमीश !, कुर्वते कालयापनाम् उदीर्णास्ते परिक्षीणाः, परे चोपशमं गताः / चित्तवृत्तिमहाटव्यां, लीनाः सन्त्यखिलाः स्थिताः उस्तावे मत्सरध्माताः, करिष्यन्ति रणं पुनः / सद्बोधवचनात् सर्वे, हन्तव्यास्ते तदा त्वया तत् प्रमाणीकृतं वाक्यं, मया भगवतस्ततः / . विहता मासकल्पे ते, सम्पूर्णेऽन्यत्र सूरयः . ततस्तदुपदिष्टार्थो, विशिष्यानुष्ठितो मया / प्रसादितं मनो बाढं, शरीरं परिकर्मितम् विहितं चित्तवृत्तौ मे, सद्बोधेन प्रवेशनम् / प्रदर्शितौ द्वौ पुरुषौ, शुभ्रौ रम्यौ सुखावहौ .. उळं च तेन द्वावेतौ, धर्मशुक्लाभिधौ नरौ / तब प्रवेशको राज्ये, कार्यस्तेनादरोऽनयोः तन दर्शिता पीतपद्मशुक्लाभिधाः स्त्रियः / विद्युत्पद्मस्फटिकभास्तेन तिस्रो मनोहराः ढकं च प्रथमस्येमास्तिस्रोऽपि परिचारिका / अपलवैका द्वितीयस्य, विज्ञेया पोषकारिणी // 450 // // 451 // // 452 // // 453 // // 454 // // 455 // 23