________________ // 420 // // 421 // // 422 // // 423 // // 424 // // 425 // यथा गच्छ भजस्वोर्वीवासवं गुणधारणम् / ततः स्वप्रभुमापृच्छय, प्रस्थितोऽसौ त्वदुन्मुखम् ज्ञात्वा प्रवृत्तिमेतां च, महामोहादयो द्विषः / पापोदयं पुरस्कृत्य, पर्यालोचं प्रचक्रिरे जगाद तत्र विषयाभिलाषो निहता वयम् / सद्बोधो यदि संसारिजीवपार्श्वे, व्रजेदयम् सर्वेऽपि पथि कुर्वन्तु, तदस्य स्खलनोद्यमम् / तदा पापोदयः प्राह, किमार्य ! क्रियतेऽधुना यत् कर्मपरिणामोऽपि, जातः सद्बोधपक्षकृत् / पुरा हि बलवान् पक्षो, बलादस्य बभूव नः उदासीनोऽपि देवश्चेद्, भवेदत्र बलद्वये। . तदाऽपि युज्यते योद्धमस्माकमरिभिः समम् इदानीं याति सद्बोधस्तत्पार्श्वे देवशासनात् / . तन्नास्य स्खलनं युक्तं, देवों दूरीकरोति नः / अधुना संस्थिता यूयं, प्रस्तावं लब्धुमर्हथ / सद्बोधो यातु तत्पार्श्व, पश्चाद् विज्ञास्यतेऽखिलम् इदमाकर्ण्य कुपितो, ज्ञानसंवरणो नृपः / / जगाद यदि तत्पार्श्वे, सद्बोधो याति लीलया जीवितेन तदा किं मे, मलिनेनायशोभरैः / यूयं तिष्ठत तद् भीता, यातव्यं तु मया ध्रुवम् इत्युक्त्वा चलिते तस्य, प्रतिस्खलनकाम्यया / झानसंवरणे राज्ञि, सर्वेऽपि चलिता हिया रुद्धो मार्गस्तदाऽऽगत्य, सद्बोधसचिवस्य तैः / आसीच्चारित्रसैन्यं चात्रागतं तावती भुवम् .. 221 // 426 // // 427 // // 428 // // 429 // // 430 // // 431 //