________________ संस्मृत्य दुर्गतेः पातं, कम्पमाने च रागिणी / अचौरता महीपाले, भाविनी संगमोत्सुका // 384 // विवेकनिर्भरः कार्यो, मुक्ततां पुनरिच्छता / भाव्याऽऽत्मनः सदा बाह्याभ्यन्तरग्रन्थभिन्नता // 385 // प्रदीप्तापिपासा च, शमनीया शमाम्भसा / / / अर्थकामाम्बुपङ्काभ्यामूर्वं स्थेयं च पद्मवत् // 386 // पाणौ जिघृक्षता ब्रह्मरति कन्दमुनेऽमुना / स्वकीया मातर इव, प्रेक्ष्याः सर्वा अपि स्त्रियः // 387 // न वस्तव्यं तद्वसतौ, न कार्या जातु तत्कथा / . न सेव्या तनिषद्या न, प्रेक्ष्यं तत्सुन्दरेन्द्रियम् // 388 // स्थेयं रतिस्थमिथुनकुड्याभ्यर्णे कदापि न / न स्मार्य पूर्वललितं; न(ना)हार्य स्निग्धभोजनम् // 389 // त्याज्या तदतिमात्रा च, राढा च तनुगोचरा / रताभिलाषिता सर्वोद्दलनीया च यलतः // 390 // अनित्यतामशुचितां, दुःखतामात्मभिन्नताम् / .. पुद्गलानां भावयते, देहादिपरिणामिनाम् // 391 // त्यजते कुविकल्पौघं, तत्त्वं विमृशते हृदि / / सद्बोधोऽस्मै समानीय, विद्याकन्यां प्रदास्यति // 392 // भोगाभिलाषास्तापाय, मनसो मृतये जनुः / कुटुम्बसङ्गः क्लेशाय, वियोगाय प्रियागमः // 393 // शोकाय जनवाल्लभ्यमात्मबन्धाय कल्पना / कीटस्य कोट(श)कारस्य, तन्तूनां रचना यथा // 394 // प्रवृत्तिः परमं दुःखं, निवृत्तिः परमं सुखम् / / इत्यस्य ध्यायतो रक्ता, भविष्यति निरीहता . . // 395 // 218