________________ // 372 // // 373 // // 374 // // 375 // // 376 // परापकारः स्तोकोऽपि, दयां परिणिनीषता / त्याज्यो निखिलंसत्त्वानां, दर्शनीया च बन्धुता परोपकारः कर्तव्यः, सेव्या च समता सदा / नोदासितव्यमन्येषां, व्यसनेषु महात्मना मोक्तव्यो जातिवादश्च, मृदुतां स्वीकरिष्यता / कुलाभिमानः संत्याज्यो, वर्जनीयो बलस्मयः स्वान्ताद् रहयितव्यश्च, रूपोत्सेकः प्रसृत्वरः / परिहार्यस्तपोगर्यो, निर्वास्यो धनितामदः श्रुतावलेपः क्षेप्तव्यो, लाभावष्टम्भसंयुतः / वाल्लभ्यकस्यानुशयः, कार्यश्च शिथिलः सदा विनयोऽभ्यसनीयश्च, सात्मीकार्या च नम्रता / . नवनीतसहाध्यायि, कर्त्तव्यं सर्वथा मनः त्यजतो भयवैक्लव्यं, परिहासमकुर्वतः / . अनुद्धाटयतो मर्म, परेषां शान्तचेतसः वाक्पारुष्यं च पैशुन्यं, मौखर्यं चोक्तिवक्रताम् / अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवं चाप्यतन्वतः चरणस्रजमागत्य, स्वयमेव निधास्यति / गुणानुरक्ता दयिता, कण्ठे राज्ञोऽस्य सत्यता सद्भावसारमाचारमनुशीलयता स्फुटम् / / त्यजता चित्तकौटिल्यमृजुदण्डोपमात्मना शल्यमुद्धरता प्रत्याहरता क्लिष्टलेश्यताम् / ऋजुता नृपरत्नेन, वशीकार्या प्रयत्नतः परपीडापरद्रोहभीरुतां हृदि बिभ्रति / जानाने च परद्रव्यापहारापायहेतुताम् 217. // 377 // . // 378 // // 379 // // 380 // // 381 // // 382 // // 383 //