________________ // 120 // // 121 // // 122 // // 123 // // 124 // // 125 // ततोऽहं मुदिताऽस्मीति, सा निशम्यापि तद्वचः। प्रत्यायिताऽपि शपथैः, प्रत्ययं न दधौ हृदि मया प्रोक्तं लवलिके!, कुमारं मे प्रदर्शय / येन स्वयं तमानीय, वत्सामाह्लादयाम्यहम् ततस्तयाऽहमानीता, कुमार! तव सन्निधौ / तदुत्थाय कुमारस्तां, दुःखाता द्रष्टुमर्हति कुलन्धरस्य वदनं, मया संप्रेक्षितं ततः / तेनोक्तं गम्यतामत्र, किं कुमार ! विरुध्यते ततोऽस्माभिर्गतं तत्र, सा दृष्टोद्दिष्टलक्षणा। . जातः सुखामृते मग्नस्तद्दर्शनरसादहम् प्राप्तः प्रेयान् स एवायमिति हृष्टाऽवलोक्य माम् / उत्का चिराद् दृष्ट इति, क्वागच्छेदिति तर्कभाग् स्वप्नोऽयं प्रत्यय इति, सविषादा स्थिरत्वतः / सनिर्णया वियोगेऽपि, जीवितेत्युदितत्रपा प्रपत्स्यते कथमसौ, मामित्युद्वेगपूरिता। प्रेक्षते मामयमिति, सविकारा च साऽभवत् अनेकभावसंकीर्णरसनिर्मग्नमानसा / सा वीक्षिता मया स्निग्धलोललोचनपङ्कजा ततः सा कामलतया, प्रोक्ता ते प्रत्ययोऽजनि / वत्से ! लवलिकावाक्ये, स्मित्वाऽथाधोमुखी स्थिता जातः प्रमोदः सर्वेषामागतोऽत्रान्तरे नृपः / स्फुरद्रत्नप्रभाजालै रिविद्याधरैर्युतः आह्लादमन्दिरोद्यानमवतीर्य नभस्तलात् / रत्नैर्भूतविमानौघः, सानन्दः कनकोदरः // 126 // / / 127 // // 128 // // 129 // // 130 // - // 131 // લક