________________ // 96 // . // 97 // // 98 // // 99 // // 100 // // 101 // मयोक्तमेवं मा वादी स्वामिनि ! रुचि विना / स स्यात् तव मुखज्योत्स्नापानलम्पटलोचनः .. रुचिताऽसि भृशं तस्य, शङ्कामपनयानघे ! / रोचते किं न भृङ्गाय, प्रफुल्ला मालती मधौ वैदग्ध्यादेव तूर्णं च, तेनापक्रमणं कृतम्। परिणामगुरुः स्नेहः, सतामापाततो लघुः इति मद्वचसा किञ्चित्, स्वस्थीभूताऽपि साऽब्रवीत्।। सखि ! गन्तुं न शक्नोमि, वपुरस्वस्थमस्ति मे न मोक्तव्यं मयोद्यानमिदं ताताम्बयोर्वद। . . त्वं च वार्तामिमां तूर्णं, गत्वा तत्त्वार्थकोविदे ! ततो मत्वाऽऽग्रहं तस्या, दुर्वारं विनिवेश्य ताम्। गुप्तद्रुमलतामध्ये, तल्पे पल्लवनिर्मिते , आगताऽहमिहोत्पत्य, तमालश्यामलं नभः / देवोऽम्बा च तदत्रार्थे, प्रमाणं वाच्यमुत्तरम् ततो राज्ञोदितं देवि !, त्वं तावद् याहि सत्वरम् / . पता सवारयष्याम, सामग्रासम्पदा त्वहम् यन्मे मनोऽस्ति साशङ्ख, रुषा विद्याधरा गताः / तवृत्तान्तोपलम्भाय, प्रयुक्तश्चटुलो मया तेन सम्पादनं युक्तं, सामग्र्याः प्राभृतस्य च / वरयोग्यस्य तत् कालविलम्बो मे भविष्यति तत् तूर्णं देवि! गच्छेति, धृत्वाऽऽज्ञां मूर्ध्नि तां प्रभोः। वेगादिमां लवलिका, पुरस्कृत्याहमागता दृष्टा पल्लवतल्पे सा, स्थिता मदनमञ्जरी। तत्रैव किञ्चिद् ध्यायन्ती, योगिनीव वचोऽतिगम् // 102 // // 103 // // 104 // // 105 // // 106 // // 10 // 114