________________ // 84 // // 85 // // 86 // // 87 // // 88 // // 89 // सा विस्मितसुधापूरैः, शुभ्रितद्रुमपल्लवा / मया रसान्तरे मग्ना, दृष्टा पश्यति वल्लभे ततस्तां तादृशी प्रेक्ष्य, मया मनसि चिन्तितम् / तोषिताऽनेन यूनेयमहो दुष्कररोचिका सुभ्रुवो भ्रूविधानेऽस्या, भग्नचापोऽपि वेधसा। अहो अस्य गुणैरेव, हन्ति बालामिमां स्मरः आनुरूप्येण मिथुनमिदं धात्रैव योजितम्। सद्भावमीलनात् सिद्धमधुना नः समीहितम् संयोगमनयोर्युक्तं, विधाय कुरुतां विधिः / अयोग्ययोगजनितस्वकलङ्कापमार्जनम् अथ सार्द्ध वयस्येन, ततः स्थानाद् गतो युवा। ततः सा प्राप सङ्कोचं, गते सूर्य इवाब्जिनी गतरत्नेव जाता च, भृशं मनसि विह्वला। . ततो मयोक्तं कः खेदो, यद्यसौ रुचितो वरः समीपे गम्यतां भर्तृदारिके ! जनकाम्बयोः / तयोः स्वां रुचिमुद्भाव्य, त्वरया व्रियतामयम् सप्रमोदपुरेशस्य, मधुवारणभूभुजः / भविष्यत्येष तनयो, गुणैर्योग्यस्तवेदृशैः क्ष्माभृद्भिर्न यदाक्रान्तं, निखिलैरपि ते मनः / आक्रामन् हविभागेन, तदेष क्ष्माभृतां गुरुः तयोक्तं मे लवलिके ! रुचितोऽयं भृशं जनः / अहं तु रुचिता नास्मै, तूर्णं गच्छेत् कुतोऽन्यथा उन्मूलयति धैर्य मे, स्नेहस्तेनैकपाक्षिकः / निर्भग्नैकतटः सिन्धुपूरः प्रान्तद्रुमं यथा ... 183 // 90 // // 91 // / / 92 // // 93 // // 94 // // 95 //