________________ // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // // 16 // // 17 // कृतक्रीडौ समं सार्द्ध, कलाभ्यासपरायणौ / स्मरद्विपमदावस्थामावां तरुणतां गतौ इतश्चास्ति पुरादूरे, स्वंशोभाजितनन्दनम् / आह्लादमन्दिरं नाम, वनं द्रुमलताघनम् तच्च सेवितमावाभ्यां, नेत्रानन्दि दिने दिने। दूरे योषिवयं दृष्टं, गताभ्यां तत्र चान्यदा उद्गिरन्तीव लावण्यमङ्गैः शृङ्गाररङ्गिभिः / तत्रैकाऽस्थात् स्मितास्यैव, द्वितीयाऽपि तदन्तिके अथ सा कुटिलैस्तीक्ष्णैराकर्णान्तावलम्बितैः / नामितभ्रूधनुर्मुक्तैर्दग्बाणैर्मामताडयत् उल्लासितस्तनी चूतशाखामालम्ब्य सा स्थिता। मनो बिभेद मे कामकन्दुकोत्क्षेपलीलया कटाक्षान् विक्षिपन्ती सा, प्रोल्लासितकुचद्वया। . निचखानाश्मगोलाभ्यां, हृदि स्मरशरान्मम . संभ्रान्तं विस्मितं स्निग्धं, साकूतं लज्जितं तथा / तस्याश्चित्तं मयाऽलक्षि, लक्षणैः स्नेहनिर्भरम् स्वान्ते प्रविश्य सा रक्ता, मम स्वान्तमरञ्जयत् / अभेदरञ्जनविधिः, स्मरस्यायमलौकिक: .. ततो मया हृदि ध्यातं, किं रम्भेयं रतिः क्रिमु / किन्नरी वा गुणदरी, किं वा श्रीर्तिशालिनी इति ध्यायनहं चित्ते, जातः स्मरविकारभाक् / साकूतं सुहृदा दृष्टस्तेन विज्ञातचेतसा आकारगोपनं कृत्वा, मयेत्थं चिन्तितं तदा / सकामदृष्ट्या नो युक्तं, परस्त्रीदर्शनं सताम् 187 // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 //