________________ // 24 // . // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // // 29 // तदस्मान्मद्विलसिताद्, किमनेन विचिन्तितम्। इति हीणो मुखं तस्य, परीक्षार्थं न्यभालयम् ततो ज्ञाताशयः कृत्वा, निगूढां काकली जगौ। कुलन्धरो मामधुना, कुमारौकसि गम्यताम् बृहद्वेलां विलसितमपराह्नोऽथ वर्तते। मयोक्तं तव चित्ते यद्, रोचते तद् विधीयताम् / आवां ततो गतौ गेहे, कृतं कार्य दिनोचितम् / उपस्थिताऽथ मदनज्वरवेलेव शर्वरी , तस्यां विविक्तशय्यायां, तिष्ठतो मम सा प्रिया। सिंहमध्या फणिस्फारवेणिदण्डा गता हृदि सा शल्यं मनसः शोच्यामकरिष्यद् दशां मम / नाभविष्यत् सुहृत्पुण्योदयो यदि समीपगः, विलगन्त्यपि सा चित्ते, ततोऽभूनातिबाधिका / स हि सांसारिकार्थेषु, मनोबाधानिरासकृत् स्मृत्वा तथापि तां काममाहात्म्येन ममाजनि / कस्येयं कीदृशी वेति, मनाक् चिन्तातुरं मनः ध्यात्वेत्यहं गतो निद्रां, न्यवर्तत विभावरी। समायातः समीपं मे, प्रभाते च कुलन्धरः मनाक् तदर्शनाकाङ्क्षावशात् सोऽभिहितो मया। पुनर्वयस्य ! गच्छावः, किं तत्राह्लादमन्दिरै ततः कुलन्धरः प्राह, गिरा स्मितपवित्रया। किं तत्र गम्यते किं ते, निधानं तत्र विस्मृतम् भावज्ञोऽयमिति ज्ञात्वा, मयोक्तं मित्र ! मुच्यताम्। हासो गत्वा वने कस्य सा कीदृग् वेति वीक्ष्यताम् . // 30 // // 31 // // 32 // // 33 // . // 34 // // 35 // . 188