________________ // 804 // // 805 // // 806 // // 807 // // 808 // // 809 // क्वचिद् दीर्घा क्वचिद् हुस्वा, भ्रमतो भवचक्रके। जाता कर्मस्थितिर्जाताः, क्वचिन्मे प्रबला द्विषः क्वचित् सदागमो जातः, प्रबलस्तन्निवारकः / इत्थं चानन्तकालीनोऽभ्यासो जातः सदागमे ततश्च निर्मलां दृष्ट्वा, चित्तवृत्तिमहाटवीम् / सद्बोधमवदत् सम्यग्दर्शनाख्यो महत्तमः आर्य ! विज्ञप्यतां देवः, प्रस्तावो गमनस्य मे / पार्श्वे संसारिजीवस्य, त्वदुक्तो वर्ततेऽधुना सद्बोधेनोदितं सम्यक्, त्वया संलक्षितोऽवधिः तद्विज्ञप्तेन स ततो, राज्ञा मे प्रहितोऽन्तिके तेनोक्तं देव ! विद्येयं, प्राभृतीक्रियते यदि। . तदा संसारिजीवस्य, सन्तोषो जायते महान् सद्बोधोऽवोचताद्यापि, प्रस्तावोऽस्या न विद्यते / येन संसारिजीवस्त्वां, सामान्येनैव भोत्स्यते विशेषतश्च त्वद्रूपं, यावत् तेन न बुध्यते / न तावद् युज्यते दातुं, तस्मै कन्येयमुत्तमा अज्ञातकुलशीलोऽस्याः, कुर्याच्चेत् स पराभवम् / तन्निमित्तं तदा शल्यं, स्यादस्माकं दुरुद्धरम् तद् गच्छ त्वं विना विद्यां, चन्द्रः पूर्णकलामिव / भूयसाऽनेहसा रूपं, भोत्स्यतेऽसौ तव स्फुटम् आदायाहं तदा विद्यामागमिष्यामि तेऽन्तिके / स लप्स्यते शरच्चन्द्रज्योत्स्नोत्सवमुदं तदा सदागमस्य सान्निध्यं, मोहादीनां च तानवम् / भवजन्तोः शमलवास्वादो देवदिक्षुता 109 // 810 // // 811 // // 812 // // 813 // // 814 // // 815 //