________________ रागकेसरिणा प्रोक्तं, वत्से ! यातु भवत्यपि / प्राणभूता कृपणताऽप्यनुगच्छतु सागरम् .. // 696 // समागतानि मत्पार्श्वे, ततस्तानि तदाज्ञया / हृष्टौ तदर्शनाद् बाढं महामोहपरिग्रहौ * // 697 // मामालिलिङ्ग सोत्साहमादौ कृपणता ततः / . जाता धीः किमदृष्टार्थं, ममेयदविणव्ययैः / / // 698 // अकलङ्कश्च मामेष, प्रोत्साहयति सर्वदा / यदि भावस्तवेऽशक्तस्ततो द्रव्यस्तवं कुरु // 699 // तद्द्वारा व्ययितं भूयो, धनं किं करवाण्यथ / / ध्यायन्तमालिलिङ्गेत्थं, स्नेहाद् बहुलिकाऽथ माम् // 700 // ततः कुबुद्धिर्जाता मे, यथेतः कर्षयाम्यमुम् / अकलङ्क स्निग्धगिरा, यथा न स्याद् धनव्ययः // 701 // ततोऽकलङ्कोऽभिहितो, मया यूयं समागताः / उपकाराय युष्माभिः, स च सम्पादितो मम // 702 // सम्पूर्णो मासकल्पो वो यूयं विहरतेत्यथ / सूरयो मोन्मनीभूवन्, मोपालम्भश्च भून्मम // 703 // चिन्ता न कार्या निर्देशं, करिष्ये भवतामहम् / अकलङ्को निशम्येदं, विहृतो गुरुमभ्यगात् ततो निवार्य भूयोऽपि, धर्महेतोर्धनव्ययम् / रक्तः परिग्रहे जातः, सागरस्याहमाज्ञया // 705 // ततः परिग्रहेणोक्तः, सागरः साध्वहं त्वया / रक्षितः क्षीयमाणाङ्गो, वैद्येनैव रुजाऽदितः // 706 // त्वत्तोऽप्येषा कृपणता, प्राणदाऽभून्ममाधिका / ' हिता बहुलिकाऽप्यासीद्, यया निर्वासितो रिपुः / // 707 // : // 704 // 170