________________ समाचरोपदेशं मे, सदागममनुव्रज / भवप्रदीपनादीन् कि, दृष्टान्तान्न स्मरस्यहो ? // 684 // व्यसनानि करस्थानि, भवस्थानां हि देहिनाम् / वियोगाः सुलभास्तीव्रव्याधयश्चाविदूरगाः // 685 // प्रत्यासन्नानि दुःखानि, ध्रुवा च यमयातना / विना विवेकं न त्राणं, पुरुषस्य किलापरम् // 686 // ततोऽगृहीतसंकेते !, शीधुमत्तो भयादिव / मन्त्रादिवाहिना दष्टः, सुप्तो बोधध्वनेरिख // 687 // ततोऽकलङ्कवचनाज्जातोऽहं लब्धचेतनः / नत्वा प्रोक्तोऽथ शोकेन, मोहो देव ! व्रजाम्यहम् // 688 // न ममात्रासितुं दत्तेऽकलङ्कः प्राह मोहराट् / दुष्टोऽयं भावि नो विद्मः, किमस्मादावयोरपि // 689 // घनवाहनमेषोऽमुं, प्रतारयति तद् व्रज / अधुना त्वं पुनः कार्य, प्रतिजागरणं मम . // 690 // तथेत्युक्त्वा गतः शोको, मया तत् स्वीकृतम् वचः / आकलङ्कं धृतश्चित्ते, प्रियत्वेन सदागमः // 691 / / स्मारितं पूर्वपठितं, मनाग् मोहपरिग्रहौ / त्यक्तौ कियान् कृतोऽपूर्वश्रुतस्य ग्रहणादरः // 692 // कारिता जिनचैत्यैर्भूः, शुभ्रा यात्राः प्रवर्तिताः / तुष्टोऽकलङ्को जातो मे, श्रमोऽत्र फलवानिति // 693 // परिग्रहस्य मित्रस्य, विरहार्तेन मेऽन्तिके / आगन्तुं सागरेणाथ, प्रश्नितो रागकेसरी // 694 // आज्ञां तस्य ददौ सोऽपि, ततो बहुलिकाऽवदत् / छायेव सागरस्याहमनुगच्छामि तेन तम् // 695 // .. 17