________________ // 660 // // 661 // // 662 // // 663 // // 664 // // 665 // प्रवर्तितं च दानादि, पात्रेषु श्रमणादिषु / दूरीभूतौ मनाग् मत्तौ, महामोहपरिग्रहौ . . लज्जयेत्यकलङ्कस्य, श्राद्धोऽहं द्रव्यतोऽभवम् / निर्मूर्च्छ इव संसारे, सन्तुष्ट इव वैभवे ततो मां तादृशं ज्ञात्वा, सोऽन्यत्र सह सूरिणा / विजहाराकलङ्कोऽथ, महामोहपरिग्रहौ मत्वा तं दूरगं पार्श्वे, मम प्रोल्लसितौ पुनः / गतः सदागमो दूरे, क्रिया सा शिथिलीकृता जातोऽहं भोगमूर्छन्धो, धनसंग्रहतत्परः / कृतानि स्त्रीसहस्राणि, हेमकूपा मया भृताः अहिरण्या कृता पृथ्वी, मयाऽन्यधनहारिणा / न कृतं यन्मया मोहात्, तत् पापं नास्ति भूतले ततः पुण्योदयः क्रुद्धो, दृष्ट्वा दुश्चरितं मम / मृता शूलान्महादेवी, नाम्ना मदनसुन्दरी . अत्रान्तरे महामोहपार्श्वे भृत्यः समागतः / . शोकाख्योऽवसरं ज्ञात्वा, स मामालिङ्गति स्म च स्मृत्वा स्मृत्वा ततो देवीं, प्राणेभ्योऽप्यतिवल्लभाम् / मुक्तकण्ठं रुदन् दीनो, जातोऽहं दुःखपूरितः राज्यकार्यं परित्यक्तं, संस्कारश्च तनोरपि / ' महाविष्टसमानोऽहं, जातो विह्वलमानसः श्रुत्वाऽकलङ्कस्तां. वार्ता, लोकास्यान्मामुपाययौ / दृष्ट्वा मामतिशोकार्तं, कृपयेदमभाषत घनवाहन ! किं कर्तुमारब्धमसमञ्जसम् / शोकदावाग्निजलदो, विस्मृतः किं सदागमः // 666 // // 667 // // 668 // // 669 // // 670 // // 671 // 160