________________ // 312 // // 313 // // 314 // // 315 // // 316 // // 317 // आत्मप्रतारणमिदं, विषयव्यसनं हि नः / . जीवितं धर्मसंतप्तपतत्रिगलचञ्चलम् सन्ध्याभ्ररागसदृशं, तारुण्यं स्वजनाश्रयः / स्नेहो विद्युद्विलसितं, योषितो दोषभूमयः ज्ञानं दीपः सुमार्गस्य, दुर्गतिध्वंसि दर्शनम् / चित्तोत्सवानां चारित्रमर्पकं शोधकं तपः संयमोऽनागतानां च, कर्मणां विनिवारकः / / त्याज्यो हेतुर्भवस्येति, मोक्षस्यादेय एक च युष्माकं विषयात्यागे, मानुष्यं निष्फलं ततः / भगवदर्शनप्राप्तिरप्यकिञ्चित्करी हहा। त्यक्त्वाऽस्मत्सन्निधौ भोगपङ्कं गृहीत तद् व्रतम् / अस्मत्सन्निध्यभावे तु, स्वार्थभ्रष्टा भविष्यथ इदमाकर्ण्य वचनं, मुनीनां देशसंयताः / लज्जमानाः प्रपद्यन्ते, संयमं पारमेश्वरम् पूरयन्त्यात्मबोहित्थं, गुणरत्नैरनारतम् / सेयं चारुगिरा योग्यकार्यसिद्धिगतिः स्फुटय हितज्ञं प्रति यत् साधोः, स्वाभिप्रायनिवेदनम् / / भद्रकानामभिमुखीकरणं तन्महात्मनः साधुभिर्भद्रका धर्मदेशनाऽऽमन्त्रणे कृते / वदन्ति वयमप्युच्चैधर्मं स्नानादि कुर्महे विलसामो वरैर्भोगैर्विचरामो निजेच्छया / उल्लासयामः स्वां कीर्ति, जन्मसारमवाप्नुमः काचादिकूटरत्नानां, वनादेः कौतुकस्य च / तदिदं पुरतश्चारोहितज्ञस्य निवेदनम् / 138 // 318 // // 319 // // 320 // // 321 // // 322 // // 323 //