________________ ततो वदन्ति मुनयो, भव्यमिथ्यादृशः प्रति / सत्यमात्मधिया धर्म, यूयं कुरुथ सादराः // 324 // विशेषं वित्थ नो किन्तु, विप्रलब्धाः कुतीथिकैः / स्नानादिहिस्रकर्माणि, यान्ति नो धर्महेतुताम् // 325 // सर्वभूतदयासारो, धर्मः खलु जगद्धितः / स्नानादीनि च कर्माणि, तद्विरोधीनि सर्वदा // 326 // यत्पुनबूंथ जनुषो, वयं सारं लभामहे / भोगाद्यैः प्राज्ञलोकानां, हास्यं तद् वो विजृम्भितम् // 327 // काये सन्निहितापाये, रोगौघे परिवल्गति / जरायां त्वरमाणायां, वियोगे चित्तदाहिनि // 328 // प्रत्यवस्थातरि यमे, शीर्यमाणे शरीरके। . गत्वरे यौवनेऽयोगविप्रिये प्रियसंगमे // 329 // पुद्गलस्कन्धसम्बन्धतुच्छेषु विषयेषु यः / .. नृणां सुखविपर्यासो, विभ्रमः स हि कर्मजः // 330 // अनन्तभवसन्तानहेतुरेष ततोऽनघाः ! / प्राप्तायां धर्मसामग्र्यामस्मासूपदिशत्सु च . // 331 // ज्ञानश्रद्धाक्रियायत्ते, मोक्षलाभे स्ववञ्चनम् / कर्तुं न युक्तं भवतामीदृशैर्मोहचेष्टितैः / / // 332 // साधुवाक्यं तदाकर्ण्य, भद्रकाः शुद्धवासमाः / सद्धर्मोपार्जनोपायं, पृच्छन्ति विनयान्विताः // 333 // ग्राहयन्ति ततस्तेषां, साधवस्तं महाशयाः / यथैतदादौ कर्तव्यमिच्छद्भिर्धर्मयोग्यताम् // 334 // सेव्या दयालुता कोपो, मोक्तव्यः खलसंगमः / त्याज्यों गुणानुरागश्चाभ्यसनीयो निरन्तरम् // 335 // 139