________________ मूढः प्राह व्रज त्वं भो, नागमिष्याम्यहं पुनः / / वचसाऽनेन भवतः स्फुटीभूता वयस्यता // 288 // ममैकं मुत्कलाचारं, यन्निराकुरुते भवान् / द्वितीयं दूषयत्युच्चैर्मामकं रत्नसञ्चयम् // 289 // यद्येतानि न रत्नानि, भास्वराणि भवन्ति मे / तदा श्रद्धाधिकै रत्नैः, पर्याप्तं तावकैः परैः // :290 // ततश्चारुः पुनर्वक्तुकामस्तेन निराकृतः। तमशक्यप्रतीकारं, मत्वा मौनमशिश्रियत् // 291 // स्वाश्रयत्वार्जितार्थाभ्यां, मूढं त्यक्त्वाऽथ शुद्धधीः / . .. सार्द्ध योग्यहितज्ञाभ्यां, चारु: स्थानं निजं ययौ // 292 // प्रापुस्त्रयः सुखं तत्र, ते रत्नविनियोगतः / भाजनं भूरिदुःखानां, मूढस्तु समजायत // 293 // केनचित् क्रुद्धभूपेन, द्वीपानिष्काशितस्ततः / अगाधे विषमावर्ते, क्षिप्तो भीमे महोदधौ // 294 // इदं वैराग्यकृज्जातं, गुरूक्तं मे कथानकम् / तच्छ्रुत्वा लब्धभावार्थः, सोऽकलङ्को मुदं दधौ // 295 // मदन्वितः प्रवृत्तोऽथ, तं नत्वाऽन्यमुनि प्रति / मयोक्तं किमनेनोक्तं, मुनिनेदमसङ्गतम् // 296 // अकलङ्कोऽवदन्नेदमबद्धं घनवाहन ! / भावार्थं कीर्तयाम्यस्य, व्यक्तं शृणु तमादृतः // 297 // वसन्तपुरतुल्योऽत्र, राशिरव्यवहारिकः / चतुर्विधा वाणिजकास्ततो जीवा विनिर्गताः . // 298 // समुद्रोऽत्र पुनर्जन्मजरामृतिपयोभृतः। . . पतन्मोहमहावर्तो, दुःखयाद:समाकुल: // 299 // 136