________________ // 395 // // 396 // // 397 // // 398 // // 399 // // 400 // बहिर्धर्तुं कथं शक्य इति प्रोक्ते च भूभुजा। मन्त्री प्राह विधेयोऽसौ, प्रतिबद्धोऽर्थकामयोः . इत्थं बहिधृतो ह्येष, नान्तर्जातुं प्रवेक्ष्यति / तदाकर्ण्य महामोहस्तत्कार्ये नियुयोज तम् तस्यास्ति मन्त्रिणः पुत्री दृष्टिः परमयोगिनी / सा प्राह तं करोम्येषा, वशगं न:(व:) प्रसादतः धनकामविहीनोऽपि, निकृष्टोऽधः कृतो मया / अधमस्य बहिष्कारे, तत्सक्तस्य न मे श्रमः ततो योग्येत्यनुज्ञाता, मन्त्रिणा च महीभुजा। ययौ दृष्टिर्बहिष्कर्तुमधमं तं नरेश्वरम् सैन्यं चारित्रधर्मस्य, तत्प्रवृत्त्या प्रकम्पितम् / राज्येऽधमस्य संजाताः, शोकाक्रन्दादयस्तताः योगिन्यथ स्थिता गत्वा, नेत्रयोरधमस्य सा / तदावेशादसौ जातो, रूपालोकनलोलुपः लोलनेत्रः स नारीणां, विभ्रमं मुहुरीक्षते। . कक्षास्तनान्तरं तासां, गुह्योरुवदनं तथा / स पश्यन्नधमो रूपं, सुधाकुण्डे निमज्जति / श्रद्धत्ते नाधिकं स्वर्ग, लीलालालितहक्सुखात् असौ दृष्ट्येत्थमाक्षिप्य, निजराज्याद् बहिष्कृतः। स्वास्थ्यादिव रुजाऽपथ्ये, नियोज्य परिदीर्घया ततोऽस्य निजराज्यादि, ज्ञानहीनस्य तध्दृतम् / महामोहादिभी राज्यं, हतास्तदनुजीविनः बाह्ये सुखे निमग्नोऽसौ, बाह्यदेशस्य भूपतिः / / षिङ्गप्रायोऽथ संजातो, नास्तिको ज्ञानिगर्हितः // 401 // // 402 // // 403 / / // 404 // // 405 // / // 406 //