________________ // 359 // // 360 // // 361 // // 362 // // 363 // // 364 // राज्यानि द्रष्टुमेतेषां, वितर्कोऽनुचरस्त्वया / प्रेष्यः षट्स्वपि राज्येषु, सर्वोऽर्थो बुध्यते यथा प्रजिघायाप्रबुद्धोऽथ, प्रमाणीकृत्य तद्वचः / . वितर्क स समायातो, वर्षषट्केऽतिलविते प्रोवाच सोऽन्तरङ्गायां, राज्यभुक्तावहं गतः / उद्घोष्यमाणः पटहः, श्रुतस्तत्र पुरादिषु निकृष्टो वर्तते राजा, सुखं पिबत खादत / यथेष्टं स्वस्वकृत्यानि, जनाः ! कुरुत निर्भया: तां श्रुत्वा घोषणां क्षोभं, राजाद्याः समुपागताः / मन्त्रयन्ति च कीदृक्षो, दत्तो भूपतिरेष नः ततो जगौ महामोहं, सचिवो निनिमित्तकः / क्षोभोऽयमागतो भाग्यादस्माकं हीदृशः प्रभुः . यो न नः पीडने शक्तो, योऽस्मनिर्देशकारकः। . अस्मत्पदातिवर्गेऽपि, भृत्यवद्‘यो भविष्यति . यः कर्मपरिणामेन, कुरूपो दुर्भगः कृतः। क्रूरो लोकद्वयभ्रष्टश्चतुर्वर्गार्थवर्जितः दीनो देवगुरुद्वेषी, दोषाणामेकमास्पदम् / निर्गुणः शक्तिशून्यात्मा, सोऽस्माकं किं करिष्यति तपस्वी नैष जानीते, स्वराज्यबलसम्पदम् / . स्वरूपमपि भावेन, नाप्यस्मान् राज्यहारकान् मन्यते बन्धुभूतान् नस्तदस्मिन् हर्षकारणे / महावर्द्धनकं कर्तुं, युज्यते जनतुष्टये अकारयद् वर्द्धनकं, महामोहोऽथ तगिरा / .. गायन्ति स्म च तद्भुत्या, विपुलानन्दपूरिताः // 365 // // 366 // // 367 // // 368 // // 369 // // 370 //