________________ // 335 // // 336 // // 337 // // 338 // // 339 // // 340 // सन्तोषस्तन्त्रपालश्च, सुभावाद्या महाभटाः / संसारिजीवसौंराज्यं, शक्तो वक्तुं विशिष्य कः भूमिस्तत्र महाराज्ये, चित्तवृत्तिमहाटवी / पुराणि शुभ्रचित्तादीन्यस्यां राजन्ति कोटिशः तस्यां तद्राज्यभुक्तौ च, कषायाभिधलूषकाः / घातिकर्माख्यचरया, भ्रमन्तीन्द्रियतस्कराः नोकषायाख्यलुण्टाका उपसर्गपरीषहाः / भुजङ्गा विलसन्त्युच्चैः, प्रमादाः षिङ्गसन्निभाः तेषां द्वौ भ्रातरौ सर्वप्रधानौ परिकीर्तितौ / आद्यः कर्मपरिणामो, महामोहो द्वितीयक: दर्पिष्ठौ तौ च मन्येते, भूरियं नः परेऽत्र के। . कोऽयं संसारिजीवोऽस्ति, को वा चारित्रधर्मकः स कर्मपरिणामाख्यस्ततः सिद्धो महानृपः / . रजस्तमोमुखान्येष नगराणि न्यवेशयत् / अस्थापयन्महामोहं, पल्लिप्रायेषु तेषु सः / तस्य सर्वं बलं दत्त्वा, स्वयं पश्यति नाटकम् परं संसारिजीवस्य, शक्तिमाकलयन्निव / चारित्रधर्मराजादिबलं पश्यन्निवातुलम् तत्साम्राज्येऽपि नात्यन्तं, निरपेक्षोऽवतिष्ठते / प्रणयं दर्शयत्येषां, कुरुते चानुवर्तनम् ततश्चारित्रधर्माद्यैर्मध्यस्थोऽयमिति श्रितः / जातः संसारिजीवस्य, प्रष्टव्यः स्वप्रयोजने तृणवन्मन्यते सर्वं, महामोहंस्तु दोर्मदात् / बलं चारित्रधर्मादेः, सर्वंकषपराक्रमः 3 // 341 // // 342 // // 343 // // 344 // // 345 // // 346 //