________________ मन्त्री स दध्यौ ननु विस्मृतं तद्, हिंसाविधौ यन्मम नो नियोगः / राज्ञोऽथवाऽसौ प्रतिबोधहेतुर्गुरोर्भविष्यत्यधिगत्य वाचम् // 240 // अथाह सूरिविधुशुभ्रभूरि-दन्तद्युतिद्योतितदिग्विभागः। न लोहयन्त्रं तव भावशत्रु-निष्पीडनाय क्षितिपाल! शक्तम् // 241 // व्रतातिचारान् परिशोधयन्ति, ये वर्तयन्ते निरवद्यवृत्त्या। पराक्रमन्तेऽलमभिग्रहेषु, न लङ्घयन्ति स्थितिमात्मनीनाम् // 242 // न लोकमार्गे प्रणयन्ति सङ्गं, गुरून् पुरस्कृत्य सृजन्ति धर्मम्। श्रुतं प्रयत्नेन विभावयन्ति, द्रव्यापदादावुपयन्ति धैर्यम् // 243 // आलोचयन्त्येष्यदपायजाल-मजातयोगेषु दृढं यतन्ते। चित्तस्य विश्रोतसिकां त्यजन्ति, योगोपचारान् परिशीलयन्ति // 244 // परं पुमांसं कलयन्ति चित्ते, बध्नन्ति तत्रैव धृति पवित्राम्। बहिश्च विक्षेपरति त्यजन्ति, कुर्वन्ति तत्प्रत्ययतानमन्तः // 245 // बाढं यतन्ते शुचियोगसिद्धौ, ध्यानं च शुक्लं परिपूरयन्ति। पश्यन्ति देहादिविविक्तरूप्नं, स्थिरं लभन्ते परमं समाधिम् // 246 // तैरुत्तमैः संयतपुण्डरीकै-दृढीकृतं तत्तदुपायविद्भिः। यदप्रमादाभिधमन्तरङ्गं, यन्त्रं तदन्तर्द्विषतः पिनष्टि // 247 / / अनेन सूरेर्वचसाऽनिलेन, वृद्धोऽथ शुद्धाध्यवसायवह्निः। मनीषिणः कर्मवनं ददाह, दीक्षां स तां क्लेशहरी ययाचे // 248 // जगाद भूपोऽथ ममापि युद्ध-क्रुद्धारिसंमईनलम्पटस्य। क्षोभाय याऽऽदित्सति तां महात्मा, दीक्षां महाराज्यवदाशु कोऽयम् 249 // सूरिभाषे विदितः शुभश्रीकुक्ष्युद्भवः कर्मविलासपुत्रः। गुणाकरोऽयं तव विस्मृतं कि, जगद्गासेचनकः शशीव // 250 // अत्रान्तरे मध्यमधीर्ययाचे, सुश्राद्धधर्म तदनु क्षितीशः। . यथास्थितं लक्षणतस्तमुक्त्वा, तयोर्ददौ निःस्पृहसार्वभौमः // 251 //