________________ इदं महामोहनृपोऽभिधाय, रागादियुक्तश्चलितों रणाय / कोलाहलोऽयं तदिति प्रतीहि, गच्छाम्यहं चाग्रबले नियुक्तः // 84 // लब्ध्वा ततः स्पर्शनमूलशुद्धि, समागतोऽहं भवतः समीपम् / सन्तोषमाकर्ण्य सदागमस्य, स्थाने तु वर्ते हृदि संशयालुः // 85 // इदं निशम्यैव जगाम बोधः, सह प्रभावेण मनीषिपार्श्वे / वृत्तान्तमाचष्ट यथोपनीतं, तुष्टिं च पुष्टिं ययौ ततोऽसौ // 86 // पृष्टोऽन्यदा स्पर्शन एवं तेन, सदागमेनैव कर्थितस्त्वम्। स प्राह वाचैव स मेऽपकारी, व्यापार्य सन्तोषमतीवदुष्टम् // 87 // अथास्तशङ्को विषयाभिलाष-भृत्यं जगद्वञ्चनसावधानम्। जाननसौ स्पर्शनमन्वतिष्ठत्, स्वार्थाय विश्रम्भमनेन बाह्यम् // 88 // अथान्यदा देहमनुप्रविश्य, बालस्य बाढं निजयोगशक्त्या। स स्पर्शनोऽवाच्यरसानुविद्धां, वाञ्छां मृदुस्पर्शगतां वितेने // 89 // मनीषिणस्त्वेष तथा न चक्रे, स्वभावभेदाकलनाद् विकारम् / दाहावहो भस्मकवज्जनानां, लौल्यं हि दोषो न धृतिस्तु भोगे // 90 // प्रदर्शिता द्यौर्भवता ममेति, बालस्य वाचा स दधौ प्रमोदम् / मनीषिणस्त्वस्वरसां निशम्य, हीणस्तदानीमुपचारवाचम् // 91 // निशम्य बालस्य तुतोष माता, विजृम्भितं स्पर्शनयोगशक्तेः।। मनीषिणः खेदमियाय किन्तु, माध्यस्थ्यमालक्ष्य शुशोच नोच्चैः // 92 // श्रुत्वाऽथ बाले कुपितः परस्मिं-स्तुष्टश्च तत् कर्मविलासराजः / जहाति बालोऽथ कुलस्य लज्जां, दिवानिशं स्पर्शनबद्धरागः // 93 // गम्यामगम्यां च न वेत्ति काञ्चि-नारीषु गृद्धो न बिभेत्यनीतेः / नापेक्षते चैष गुरूपदेशं, स्वहास्यतां नाकलयत्यशङ्कः // 94 // निवारयिष्यन्नहितप्रसङ्ग, कृपापरः स्पर्शनमूलशुद्धिम् / / जगौ मनीषी पुरतोऽस्य तत्तु, गतं लुठित्वा किल पार्श्व एव // 95 // 74