________________ // 1435 // मेहतः // 1436 // // 1437 // // 1438 // // 1439 // // 1440 // तस्य मे कीदृशी दीक्षा, जैनलिङ्गप्रभावतः / सकुटुम्बोऽप्यहं पूज्यो, भवामि भुवि केवलम् इमां विचक्षणाचार्यचाचमाचम्य पार्थिवः / दध्यौ स्ववृत्तकथनान्मोहः पूज्येन मे हतः अहो भगवतो वाचां, विन्यासः कोऽप्यनुत्तरः / अहो विवेकिभावोऽहो, सुदृष्टपरमार्थता ज्ञाततद्वाक्यगर्भार्थः, पार्थिवोऽभिदधे ततः / यादृशं तव संपत्रं, गुणपूतं कुटुम्बकम् कुटुम्बपोषको. यादृग् गृही त्वं जैनलिङ्गभाक् / तादृशः पुण्यसंभारभाजनं नापरो भुवि (युग्मम्) रसना दुर्जया लोकें, येनाकिञ्चित्करी कृता / लोलता निगृहीता च, स त्वं दुष्करकारकः अन्येषामपि वृत्तान्तो, येषामीगजायत / ते धन्यास्ते महात्मानो, वन्द्यास्ते नाकिनामपि अन्येषां भगवन्नीहक्, संपन्नं शमिनां न वा। सूरिजंगावभूदीदृग, वृत्तान्तः सर्वसाधुषु नृशार्दूल ! तवापीदृग, वृत्तान्तः संभवत्ययम् / मादृशैर्यत् कृतं तच्चेत्, करोषि प्रगुणाशयः श्रुत्वेदं पार्थिवो दध्यौ, सम्यग् भगवतोदितम् / / स एव प्रभुतामेति, दोभ्या॑मुत्सहते हि यः ऊचेऽथ गलितानिष्टपुण्यपापाणुसंचयः / दीयतामधुना दीक्षा, योग्यता यदि मे भवेत् सूरिणोक्तं महाराज, चारु चित्ते विनिश्चितम् / योग्योऽस्यलं विलम्बेन, भवे भूरिभयाकरे 251 // 1441 // // 1442 // // 1443 // // 1444 // // 1445 // // 1446 //