________________ ततो विचक्षणः प्राह, दूरे तात ! स पर्वतः / कथं स्याद् गमनं तत्र, कुटुम्बसहितस्य मे // 1423 // शुभोदयोऽब्रवीदेनं, विमर्शः प्रवराञ्जनात् / इहैव दर्शयत्यदि, तच्चिन्तेयं तवात्र का // 1424 // प्रकर्षोऽप्यब्रवीत् तातवचने नात्र संशयः / मयाऽनुभूतमेतस्य, सिद्धाञ्जनविजृम्भितम् // 1425 // यावन्न विमलालोकं, प्रयुङ्क्तेऽयं वराञ्जनम् / दूरस्थाः प्रतिभासन्ते, तावदद्रिपुरादयः / // 1426 // भान्ति शैलादयोऽभ्यणे, दत्ते त्वस्मिन् वराञ्जने / ततो विचक्षणेनोक्तो, विमर्शो देहि मेऽञ्जनम् // 1427 // ददौ विचक्षणायाथ, विमर्शोऽखिलमञ्जनम् / ततो विचक्षणोऽद्राक्षीत्, सर्वं तदुपयोगतः // 1428 // ततो विचक्षणो युक्तो, नरेन्द्रनरवाहन ! / शुभोदयेन तातेन, तथा चारुतयाऽम्बया . // 1429 // शालकेन विमर्शेन, बुद्ध्या च प्रियभार्यया / .. प्रकर्षेण च पुत्रेण, वने वदनकोटरे // 1430 // स्थितया रसनापल्या, सर्वथा सकुटुम्बकः / त्यक्त्वैकां लोलताचेटी, प्राप्तो गुणधरान्तिकम् (त्रिभिविशेषकम्) // 1431 // नीत्या प्रवाजितस्तेन, साध्वाचारं च शिक्षितः / स्थापितः स्वपदे सूरिवरेण रसनाजयी // 1432 // सोऽहमेव महाराज ! ते चामी मुनयोऽनघाः / विवेकाद्रिस्थिता एवान्यवस्था अपि तत्त्वतः // 1433 // अयं वैराग्यहेतुर्मे, प्रव्रज्येयं ममेदृशी। भार्यादोषाल्ललौ दीक्षां, यो न तां सर्वथा जहौ // 1434 // ૨પ૦