________________ अजारक्षमजभ्रान्त्या, हतं दृष्ट्वा जडो हृदि / दध्यौ लोलतया ग्रस्तस्तृप्तो मांसैः परैरहम् // 1411 // इदं तु मानुषं मांसं, मंया जिह्वा न भोजिता / तदिदानी ददाम्यस्यै, स्वादमस्यापि वेत्त्वियम् // 1412 // ततः संस्कृत्य तद् दत्तं, तेन सा मुदिताऽजनि / खादन् लोलतयाऽन्यान्यजनान् जातः स राक्षस: // 1413 // ततो बन्धुपरित्यक्तो, बालैरपि च निन्दितः / जातः पराभवस्थानं, सोऽलक इव सर्वतः // 1414 // जिघांसुर्मानुषान् रात्रावन्यदा लोलताऽन्वितः / प्रविवेश गृहं चौर इव शूरकुटुम्बिनः // 1415 // सुप्तं तत्सूनुमादाय, दृष्टः शूरेण निस्सरन् / .. क्रोधान्धेनाथ बद्ध्वाऽसौ, निहतो यातनाशतैः // 1416 // वृत्तान्तं तमवेत्यापि प्रभाते जडबन्धुभिः / . दूरीकृतायशःपूरे, शूरे क्रूरं न चिन्तितम् / // 1417 // विदन्निदं जडस्याथ, रसनालालने फलम् / विचक्षणो विरक्तोऽस्थाद् यावत् तौ समुपागतौ // 1418 // मूलशुद्धिं यथा दृष्टां, विमर्शे प्रोक्तवत्यथ / रसनां त्यक्तुकामोऽसौ, बभाषे पितरं प्रति . // 1419 // तात !. या रसना पुत्री, रागकेसरिमन्त्रिणः / जडे दृष्टविपोका तां, त्यक्तुमिच्छामि सर्वथा // 1420 // ततः शुभोदयः प्राह, प्रियेयं तव विश्रुता / रसना सर्वथा तस्मान्नाकाले त्यागमर्हति // 1421 // ततो मोच्या क्रमेणेयं, साध्वाचारभृता त्वया / विवेकशिखरस्थेन, निर्वाह्या विधिनाऽधुना // 1422 // 249