________________ गतो राजा रिपून् जेतुमितश्च चणकाधिपः / तीव्राख्यस्तेन रिपवो, युधि वीर्येण निर्जिताः . // 1032 // मध्येसभं नृपकथां, चकारेतश्च दुर्मुखः / जितो नृपोऽरिभिश्चण्डैः, पलायध्वं ततो जनाः // 1033 // तदाकर्ण्य पुरं सर्वं, नष्टं संजातसंभ्रमम् / समागतो नृपोऽपश्यत्, तद् दग्धवनसन्निभम् // 1034 // श्रुत्वा कुतश्चिद् तद्वार्ता, कुपितो दुर्मुखोपरि / दण्डमीदृशमस्यादात्, पुनरावासिते पुरे // 1035 // प्रकर्षः प्राह हा कष्टमेतावद् दुर्वच:फलम् / विमर्शः प्राह विकथोन्मथितानामियत् कियत् // 1036 // कृपाणी गुणवल्लीनां, वाणी नूनमयन्त्रिता / प्रमाणीकुरुते कोऽपि, प्राणी न मुखरं जनम् // 1037 // भारत्युच्छृङ्खला वत्स ! ध्रुवं बन्धाय देहिनाम् / / मोचनाय तु संलीनेत्येषा तत्प्रकृतिस्थितिः // 1038 // तदस्य विकथामूलं, दुर्भाषाफलमीदृशम् / . आपन्नं परलोके च, ध्रुवा दुर्गतियातना // 1039 // अत्रान्तरे प्रकर्षस्य, राजमार्गे पपात दृग् / तत्रैको मानवः शुभ्रो, दृष्टः पृष्टश्च मातुलः // 1040 // कोऽयं क्व याति स प्रोचे, रागकेसरिसैनिकः / हर्षोऽयं मानवावासे, वासवाख्यवणिग्गृहे // 1041 // प्रवेक्ष्यति मनः कर्तुमस्योत्सवतरङ्गितम् / बालकालवियुक्तस्य, वयस्यस्य समागमात् (युग्मम्) // 1042 // निरैक्षत प्रकर्षोऽथ, सुविस्फारितलोचनः / धनदत्तेन सुहृदा, वासवो मिलितस्तदा // 1043 // 210