________________ // 356 // // 357 // ' | // 358 // // 359 / / .. // 360 // // 361 // देवे प्रचलिते दुष्टसन्तोषवधकाम्यया / . देव्यपि प्रस्थिता साधं, भर्तृचित्तानुयायिनी ततो द्वेषगजेन्द्रेण, प्रोक्ता सा त्वच्छरीरकम् / स्कन्धावारक्षमं नास्ति, देवि ! गर्भभरालसम् तस्मादत्रैव तिष्ठ त्वं, रणरङ्गे व्रजाम्यहम् / / तयोक्तं न पुरेऽत्राहं, त्वां विना स्थातुमुत्सहे. प्रत्युक्ता साऽथ देवेन; दृढस्नेहाऽसि यद्यपि / तथापि तव नो युक्तं, स्कन्धावारे प्रवर्तनम् किन्तु रौद्रपुरे दुष्टाशयेन परिरक्षिता / . तिष्ठ चिन्तोज्झिता गत्वा, स हि मे सेवकोत्तमः निर्बन्धं प्रबलं पत्युः, पराकर्तुमथाक्षमा / रौद्रचित्तपुरे देवी, तदादेशेन सा गता' कुतोऽपि हेतोर्बाह्येषु, सा पुरेष्वस्ति साम्प्रतम् / प्राक् तयैकः सुतो जातः, श्रूयतेऽन्योऽपि चाधुना भर्तृसंयोगतो जातो, देवी तेनात्र नास्ति सा / ममात्र गमने यत्तु, कारणं कथयामि तत् प्रतिष्ठमान एवेदं, मतिमोहं प्रभुर्जगो / न त्वयेदं पुरं त्याज्यं, त्वमेतद्रक्षणक्षमः स देवाज्ञां, समासाद्य, स्थितोऽत्रैव पुरे ततः / आगतोऽहं चिरात् तस्य, मित्रस्यात्र दिदृक्षया दीर्घाटव्यां स्थितं मुक्तं, मया देवस्य साधनम् / / एतदुक्त्वा गतः शोको, नगरे स्वार्थसिद्धये . विमर्शेन ततः प्रोक्तं, प्रकर्षं प्रति भद्र या / अटवी साधनाधारा, दीर्घा शोकेन दर्शिता // 362 // // 363 // // 364 // // 365 // // 366 // // 367 / / 160