________________ ज्वलनेऽपि पतन्त्यस्य, प्रतापमसहिष्णवः / विशन्त्यपि वने मूर्च्छत्पञ्चाननघनध्वनौ . // 344 // विक्रमाक्रान्तभुक्नो, भानुजैत्रप्रतापवान् / प्रष्टव्यः स्यात् कथं द्वेषगजेन्द्रोऽसौ महाबलः / // 345 // आस्तां देवः परं विश्वं, या मोहयति तत्क्षणात् / ख्याताऽविवेकिताऽप्यत्र, सा देवी शक्तिभाजनम् // 346 // महामोहस्य निर्देशं, सा नात्येति कदाचन / सा महामूढताज्ञायां, वर्तते सर्वदा वधूः // 347 // रागकेसरिनिर्देशाद्, दूरे सा नैव तिष्ठति / मूढतायाश्च तत्पत्न्याः, प्रीति सा वर्धयत्यलम् // 348 // भर्तुर्दृषगजेन्द्रस्य, साऽनुवृत्तिपरायणा / इत्थं गुणैर्गता श्लाघां, त्रैलोक्येऽप्यविवेकिता // 349 // ख्यातावेतौ न किं ज्ञातौ, त्वया देवीनरेश्वरौ / विमर्शः प्राह पथिकावावां दूरादिहागतौ . // 350 // दृष्टं पुरं पुरा नेदं, श्रुतौ देवीनृपौ भृशम् / किं स्याद् द्वेषगजेन्द्रो वाऽन्यत्र वेति तु पृच्छ्यते // 351 // शोकः प्राह जगत्येवं, वार्ता छ्नेयमस्ति न / निर्गतो यन्महामोहः, सन्तोषजयकाम्यया // 352 // पार्श्वे द्वेषगजेन्द्रोऽपि रागकेसरिसंयुतः / .. तस्यास्ति सर्वसैन्यं च, भूयान् कालोऽत्र लङ्घितः // 353 // विमर्शः प्राह यद्येवं, ततस्त्वं किमिहागतः / किं साऽविवेकिताऽस्त्यत्र, तत्सुखप्रश्नगोचरः // 354 // शोकः प्राह पुरेऽत्राऽस्ति, नाधुना साऽविवेकिता। . नापि देवस्य पार्श्वे च, तत्राकर्णय कारणम् . 150 // 355 //