________________ ताभ्यां तत्रापि हेमन्ते, भ्रमद्भ्यां भूतलेऽखिले। मूलशुद्धिर्न विज्ञाता, रसनायाः कथञ्चन // 308 // अथान्तरङ्गदेशेषु, प्रविष्टौ तौ शुभाशयौ / तत्र राजसचित्ताख्यं, ताभ्यां नगरमीक्षितम् // 309 // तच्च दीर्घमिवारण्यं, बहुलोकविवर्जितम् / . . . . निर्नायकं च संप्रेक्ष्य, प्रकर्षो मातुलं जगौ // 310 // अभूत् किमिदमेताइक्, कथं चेत्थमपि श्रियम् / धत्ते ततो विमर्शोऽपि, प्रकर्षं प्रत्यभाषत // 311 // निरुपद्रवमेवेदं, नगरं परिभाव्यते / निष्क्रान्तराजकं क्वापि, कुतश्चित्तु प्रयोजनात् // 312 // पुंविशेषप्रभावाच्च, सश्रीकमिदमीक्ष्यते / ततो राजकुले गत्वा; दृष्टस्ताभ्यां पुमानसौ // 313 // अहङ्कारादिकतिचित्पुरुषैः परिवारितः / उदारविक्रमो मिथ्याऽभिमानाख्यो महत्तमः // 314 // पृष्टस्ताभ्यां ततो लोकविरलीभावकारणम् / . स प्राहास्य पुरस्यास्ति नायको रागकेसरी // 315 // तत्पिता च महामोहो, जयत्यक्षयशासनः / / सन्त्यस्यानेके विषयाभिलाषाद्याश्च मन्त्रिणः . // 316 // सर्वानीकयुजां तेषां, सर्वेषां नगरादितः / कालोऽनन्तो ह्यतिक्रान्तो, गतानां दण्डयात्रया सरलौ तेन नगरमिदं विरलमानवम् / विमर्शः प्राह केनामा, तेषां नन्वस्ति विग्रहः // 318 // ऊचे मिथ्याभिमानोऽथ, संतोषेण दुरात्मना / . . प्रत्यब्रवीद् विमर्शोऽथ, को हेतुस्तेन विग्रहे . . // 319 / / // 317 // 156