________________ // 128 // // 129 // // 130 // // 131 // // 132 // // 133 // खलः खेदं प्रयात्येव, दृष्ट्वा सत्सङ्गमोदयम् / पद्मोल्लासे कृतेऽर्केण, किं न खिद्यति कौशिकः ततस्तौ द्वौ वियोगाय, जातौ नौ कृतनिश्चयौ / मया तु तां समासाद्य, तृणवद् गणितं जगत् तदाऽहं चिन्तयामि स्म, स्तब्धचित्तविलिप्तहत् / मत्तुल्यः कोऽपि नास्तीह, यस्य भार्येयमीदृशी पुण्योदयस्तु मां दृष्ट्वा, तादृशं क्षीयतेऽनिशम् / स्फुरद्विचिमदोन्माद, राकेन्दुखि सागरम् ततो मां तादृशं दृष्ट्वा, हसन्ति निखिला जनाः / पश्यताहो विधेरीदृगस्थानविनियोजनम् / स्त्रीरत्नमीटगेतेन, मूर्खेण विनियोजयन् / . स्वापवादं स्वहस्तेन, तेने वेदजडो विधि: करिणीव खरे कल्पलतेवैरण्डपादपे / / अस्मिन्नियोजिता ह्येषाऽपकीर्तिविश्वरेतसः जाड्यान्धः प्रागभूदेष, गर्वेणान्धोऽधुनाऽजनि / कपेस्तदेतत्कापेयं, दष्टस्य वृषणेऽलिना जिज्ञासमाना सद्भावमन्यदा नरसुन्दरी / अज्ञानजं मनःक्षोभं, जानानैव जगाद माम् आर्यपुत्र ! सभायां ते, कीगासीदपाटवम् / 'योगशक्त्या तदाविष्टो, मृषावादो मदानने ततो मयोक्तं हृदये, कलाः सर्वाः स्फुरन्ति मे / नास्वस्थोऽपि तदाऽभूवं, पितृभ्यां त्वाकुलीकृतः व्यलीकभावं श्रुत्वैतज्जगाम नरसुन्दरी / दध्यावहो विलज्जत्वमहो प्रत्यक्षनिह्नवः 141 // 134 // // 135 // // 136 // // 137 // // 138 // // 139 //