________________ // 540 // // 541 // // 542 // // 543 // // 544 // // 545 // अथैवं चिन्तयामि स्म, तत्त्वज्ञानपराङ् मुखः / / अहो वैश्वानरस्यायं, प्रभावो भुवनाद्भुतः यत्प्रभावान्मया लोके, लब्धा जयपतांकिका / अहो प्रभावो हिंसाया, या दुर्द्धर्षं चकार माम् एते मे परमे बन्धू, एते परमदेवते / ध्रुवं मे निन्दकः शत्रुः, सुहृत् श्लाघाकृदेतयोः ताताम्बादीनपृष्ट्वैव, रात्रिशेषे ततो गतः / अटव्यां मारयामि स्म, सत्त्वान्, पापधिबद्धधीः कृत्वा खेटकमायातः, सन्ध्यायां भवने निजे / नायातः किं कुमारोऽद्य, पिताऽथ विदुरं जगौ स जगौ जग्मुषा तस्य, गेहं परिजनाच्छ्रुतम् / मया निश्येव पापद्धय, कुमारः कानने गतः पुनः पृष्टं कुमारः किमद्यैव मृगयाधिया / गतोऽटव्यां किमथवा, यात्येष प्रतिवासरम् तदा परिजनेनोक्तं, हिंसापाणिग्रहोत्तरम् / पापर्द्धिमन्तरा क्वापि, दिने न धृतिमेत्ययम् तातोऽथ प्राह विदुर ! कुमारस्य न युज्यते / मृगयाव्यसनं पापमस्मद्वंश्यैरनादृतम् भार्याऽपसार्या हिंसेयं, तत् कुमारस्य पापभूः / विदुरः प्राह सा वैश्वानरवनिरुपक्रमा अथवा श्रूयते जैनः, पुरेऽत्र पुनरागतः / नैमित्तिकः स एवात्र, प्रष्टव्योऽर्थे रहस्यवित् ततो राज्ञा स आहूतः, प्रतिपत्तिः कृतोचिता / पृष्टं कथं कुमारोऽयं, हिंसां त्यक्ष्यति मे वद // 546 // // 547 // // 548 // // 549 // // 550 // // 551 // 110