________________ // 420 // / .. // 421 // // 422 // // 423 // // 424 // // 425 // रथस्थो हट्टमार्गेण, गच्छन् रत्नवतीयुतः / प्राप्तो राजकुलाभ्यर्णमितश्चाहं कृताद्भुतः अथास्ति सुह्मनाथस्य, दुहिता जयवर्मणः / देवी कनकचूडस्य, नाम्ना मलयमञ्जरी क्रीडन्मन्मन्मथताम्राक्षलावण्यद्रुममञ्जरी / अस्ति तस्याः सुता धन्या, कन्या कनकमञ्जरी विलोकते स्म गच्छन्त, सा मां वातायनस्थिता / जघान मन्मथव्याधो, मृगीमिव तदैव ताम् ममापि लीलया दृष्टिस्तत्र वातायने गता / अमूमुहन्मां दृष्टाऽपि, ततः सा मदिरेक्षणा पश्यन्ती मम दृष्टिं सा, प्राप गाढं स्मरज्वरम् / सिस्वेद च चकम्पे च, संमुमोह च तद्वशा आवयोदृष्टिसंयोगाद् व्यक्तचिह्नादलक्षयत् / तेतलिः सारथिर्भावं, कन्दर्पद्रुमदोहदम् दध्यौ चायमसौ योगो, रतिमन्मथयोरिव / . युक्तोऽवाच्यः परमिति, स्मित्वा रथमचालयत् दृष्टिः, कथञ्चिदाकृष्टा, ततो लज्जागुणान्मया / तस्यां मनस्तु लावण्यदीर्घिकायां स्थितं मम / अथ प्राप्तो निजावासं, क्रिया चक्रे दिनोचिता / निशायां तद्विकल्पौधैः, शून्यचित्त इवाभवम् तदद्वैतोपनिषदः, स्मरो मां यदपीपठत् / विना तदाशां तेनाशाः, सर्वाः शून्या मयेक्षिताः लावण्यामृतपूर्णायां, तस्यां मग्ने ममेक्षणे / . अहो तत्यजतुर्नैव, स्मरतप्ते अपि श्रुतिम् 102 // 426 // // 427 // // 428 // // 429 // // 430 // . // 431 //