________________ // 200 // // 201 // // 202 // // 203 // // 204 // // 261 // न धर्मो निर्दयस्यास्ति, पलादस्य कुतो दया / पललुब्धो न तद्वेत्ति, विद्याद्वोपदिशेन्नहि . केचिन्मांसं महामोहा-दश्नन्ति न परं स्वयम् / देवपित्रतिथिभ्योऽपि, कल्पयन्ति यदूचिरे क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य, परोपहृतमेव वा / देवान् पितॄन् समभ्यर्च्य, स्वादन् मांसं न दुष्यति मन्त्रसंस्कृतमप्यद्या-द्यवाल्पमपि नो पलम् / भवेज्जीवितनाशाय, हालाहललवोऽपि हि सद्यः संमूर्च्छितानन्त-जन्तुसन्तानदूषितम् / नरकाध्वनि पाथेयं, कोऽश्नीयापिशितं सुधीः ? मांसलुब्धैरमर्यादै-नास्तिकैः स्तोकदर्शिभिः / कुशास्त्रकारैर्वैयात्याद् गदितं मांसभक्षणम् नान्यस्ततो गतघृणोनरकार्चिष्मदिन्धनम् / स्वमांसं परमांसेन, य: पोषयितुमिच्छति स्वाङ्गं पुष्णगूथेन, वरं हि गृहशूकरः / प्राणिघातोद्भवैर्मासैर्न पुननिघृणो नरः निःशेषजन्तुमांसानि, भक्ष्याणीति य ऊचिरे। नृमांसं वर्जितं शङ्के स्वक्धाशङ्कयैव तैः विशेष यो न मन्येत, नृमांसपशुमांसयोः / धार्मिकस्तु ततो नान्यः, पापीयानपि नापर: शुक्रशोणितसम्भूतं, विष्टारसविवर्द्धितम् / लोहितं. स्त्यानतामासं, कोऽश्नीयादकृमिः पलम् ? अहो द्विजातयो धर्म, शौचमूलं वदन्ति च / ससधातुकदेहोत्थं, मांसमश्नन्ति चाधमा: // 262 // // 263 // // 264 // // 265 // // 266 // // 267 // 73