________________ योषितां दशनान् कुन्द-सोदरान् बहु मन्वते / / स्वदन्तभङ्गं नेक्षन्ते, तरसा जरसा कृतम् // 171 // स्मरदोलाधिया कर्ण-पाशान् पश्यतिं योषिताम् / कण्ठोपकण्ठलुठितान्, कालपाशांस्तु नात्मनः // 172 // योषितां प्रोषितमति-मुखं पश्यत्यनुक्षणम् / क्षणोऽपि हन्त नास्त्यस्य, कृतान्तमुखवीक्षणे - // 13 // नरः स्मरपराधीनः, स्त्रीकण्ठमवलम्बते / नात्मनो वेत्त्यसूनद्य, श्वो वा कण्ठावलम्बिनः // 174 // स्त्रीणां भुजलताबन्धं, बन्धुरं बुध्यते कुधीः / न कर्मबन्धनैर्बद्ध-मात्मानमनुशोचति // 175 // धत्ते स्त्रीपाणिभिः स्पृष्टो, हृष्टो रोमाञ्चकण्टकान् / स्मारयन्ति न किं तेऽस्य, कूटशाल्मलिकण्टकान् // 176 // कुचकुम्भौ समालिङ्गय, स्त्रियाः शेते सुखं जडः / विस्मृता नूनमेतस्य, कुम्भीपाकोद्भवा व्यथा // 177 // मध्यमध्यासते मुग्धा-मुग्धाक्षीणां क्षणे क्षणे। एतन्मध्यं भवाम्भोधे-रिति नैते विवञ्चते // 178 // धिगङ्गनानां त्रिवली-तरङ्गैहियते जनः / त्रिवलीछद्मना ह्येत-ननु वैतरणीत्रयम् // 179 // स्मरात मज्जति मनः, पुंसां स्त्रीनाभिवापिषु / प्रमादेनापि किं नेदं, साम्याम्भसि मुदास्पदे // 180 // स्मरारोहणनिःश्रेणी, स्त्रीणां रोमलतां विदुः / नराः संसारकारायां, न पुनर्लोहशृङ्खलाम् // 181 // जघन्या जघनं स्त्रीणां, भजन्ति विपुलं मुदा।। संसारसिन्धोः पुलिन-मिति नूनं न जानते // 182 // .