________________ गर्द्धण काझे पान्ता डुपु डिपु डपि डम्पि डिम्पि डिपिण स्युः / सङ्घाते छपुण गतौ क्षपुण क्षान्तौ डिपण क्षेपे // 306 // शूर्पण माने ह्लपण व्यक्तायां वाचि ननु समुच्छाये / ष्टूपण बान्ताः पुर्बण निकेतने छादने तु कुबुण // 307 // डबु डिबुण क्षेपार्थों सम्बण संबन्धनेऽथ लुबु तुबुण / द्वावर्दनेऽथ शुल्बण सर्जनमानद्वये भान्तौ // 308 // डम्भि डिम्भिण सङ्घाते मान्ता आलोचने शमिण् / / कुस्मिण कुस्मयने ख्यातो वितर्के तु स्यमिण भवेत् // 309 // यमण परिवेषणेऽथो यान्तो व्ययण क्षयेऽथं रान्ताः स्युः / कुद्रुण असत्यवचने श्वभ्रण गमनेऽथ गूरिण स्यात् // 310 // उद्योगे यत्रुण स्यात् संकोचे गुप्तभाषणे मन्त्रिण / तन्त्रिण कुटुम्बधारण इह लान्ता ललिण ईप्सायाम् // 311 // कल किल पिलण क्षेपेऽथोत्क्षेपे दुलण तुलण उन्माने / बुलण निमज्जन इलण प्रेरण इह तलण तु प्रतिष्ठायाम् // 312 // पुलण समुच्छाये स्यात्तिलण स्नेहे क्षलण तु शोचार्थः / बिलण तु भेदे मूलण रोहण इह पलण रक्षार्थः . // 313 // जलण अपवारणार्थे चलण भृतौ वान्त एक इह सान्त्वण / सामविधौ शान्ताः स्यूडूंशण कान्तीकृतौ स्पशिण // 314 // ग्रहणश्लेषणयोः स्यादशिण दशनेऽथ षान्तका: प्युषण / उत्सर्गे श्लिषण समाश्लेषे लुषण तु हिंसायाम् // 315 // रुषण तु रोषे सान्ताः पुंसण् अभिमर्दने जस ब्रूस। ' पिसण च हिंसााः स्युः पसुण विनाशेऽथ रक्षणे जसुण // 316 // भर्सिण तु तर्जनार्थे दंसिण दशनेऽपि दर्शने हान्तौ / बर्हण जसवत् ष्णिहण स्नेहे क्षान्ताः परिग्रहे पक्षण // 317 // 305