________________ ऋदन्ताः कृ म शृश् हिंसायां नृश नये गतौ / ऋश जृश् वयोहानौ बृश् भरणे भृश भर्जने च भवेत् // 284 / / कृगश् हिंसायां स्यात् वृगश वरणे विदारणे दृश। पृश् पालनपूरणयोः स्तृगश आच्छादने प्रोक्तः // 285 // गृश् शब्दे वृत् प्वादिविंशत्यैकहीनया ल्वादिः / धातुभिरन्ये तेऽष्टात्रिंशत् ज्यादौ समेऽपि षष्टिः स्युः // 286 // इति सद्गुरुवाग्देवीप्रसादमासाद्य हर्षकुलविहिते। कविकल्पद्रुमनाम्नि ग्रन्थेऽयमपूरि पल्लवो नवमः // 287 // // 10 // चुरादिगणप्रकाशो दशमः पल्लवः // चुरण स्तेय ऋदन्तो स्रवणे घृण पूरणे तु पृण कान्ताः / नक्कण धक्कण नाशे चुक्कण चक्कण उभौ व्यथने . // 288 // वल्क श्वल्कण कथने टकुण स्याद् बन्धनेऽर्कण स्तवने / हिष्किण किष्किण हनने निष्किण परिमाणे इह चान्तौ // 289 // पिच्चण तु कुट्टनार्थे विस्तारे पचुण जान्तास्तु / ऊर्जण् जीवनबलयोः स्याद् गज मार्जण निनादार्थों // 290 // तिजण निशाने पूजण पूजायां क्षजुण कृच्छ्रजीवनके / व्रज वजण गतौ मार्गण संस्कारे रुजण हिंसायाम् // 291 // तुजु पिजुण बले दाने निकेतने हिंसनेऽपि तर्जिण तु। . तर्जन इह च च्छान्तो म्लेच्छण अव्यक्तगिरि यन्ताः // 292 // तुट चुट चुटु छुटण स्युः छेदे कुट्टण कुत्सनार्थश्च / / पुट्टयुत चुट्ट षुट्टण अल्पीभावे विभाजने तु वटुण् / // 293 // 304