________________ // 7 // रुधादिगणप्रकाशः सप्तमः पल्लवः // अथ धान्तौ रुधूपी आवरणे भासने जिइन्धैपि / चान्ताः पञ्च वृचैप तु वरणे सम्पर्चने तु पृचैप् // 263 // विचूपी पार्थक्ये रिचंपी स्याद्विरेचने तञ्चूप् / सङ्कोचनेऽथ दान्ताश्छिदंपी स्याद् द्विधाकरणे // 264 // क्षुदंपी पेषे उच्छृदंपी तु दीप्तिदेवनयोः / / ऊतृदंपी हिंसानादरयोर्दारणे तु. भिंदपी // 265 // ऊंदैप क्लेदन इह खिदिप दैन्ये विचारणे तु विदिप् / जान्ता अञ्जौप् व्यक्तिम्रक्षणगमनेष्वथो भञ्जोंप् // 266 // आमर्दनेऽथ तञ्जौप् सङ्कोचन ओविजैप भयचलने / अभ्यवहतिपालनयोर्भुजंप योगे तु युजंपी' // 267 // सान्तो हिसुप प्रमये हान्तः स्यात्तद्वधेऽथ तृहप इति / षान्तो तु चूर्णनार्थे पिष्लँप विशेषणे तु शिष्लँप . // 268 // तान्तः कृतैप वेष्टन इति षट्विंशतिरभृद् रुधादिगणः / ग्राह्यः स्वयं परस्मैमुखो विभागोऽनुबन्धफलात् // 269 // इति सद्गुरुवाग्देवीप्रसादमासाद्य हर्षकुलविहिते। कविकल्पद्रुमनाम्नि ग्रन्थेऽभूत्पल्लवोऽत्र सप्तमकः // 270 // // 8 // तनादिगणप्रकाशोऽष्टमः पल्लवः // नान्ताः समे तनूयी विस्तारे याचने वनूयि भवेत् / अवबोधने मनूयि क्षणूग् क्षिणूयी तु हिंसाn // 271 // दाने मतः षणूयी गमनार्थे संमतः किल ऋणूयी / अदनार्थे तु तृणूयी भासि घृणूयी नव तनाद्याः // 272 // 302