________________ // 220 // // 221 // पूष्यादिः सप्तषष्ट्या वृत् स्वादिषूदन्तकं द्वयम् / षूडौच प्राणिप्रसवे परितापे तु दूङ्च ईदन्ताः स्युर्मीङ्च हिसायां दींङ्च क्षये रीङ्च / श्रवणे लीङ्च श्लेषे डीङ्च गमने ह्यनादरे धींङच् वरणे बीच ख्यातः सूयत्याद्या नवेत्यथ / द्विचत्वारिंशदधिकं शतं सर्वे दिवादयः .. इति सद्गुरुवाग्देवीप्रसादमासाद्य हर्षकुलविहिते। कविकल्पद्रुमनाम्नि ग्रन्थेऽभूत्पल्लवस्तुरीयोऽयम् // 222 // . // 223 // // 5 // स्वादिगण प्रकाशोः पञ्चमः पल्लवः पुंग अभिषवे पूर्वमिदन्तो बन्धनार्थकः / पिंगट चिंगट् तु चयने हिंट् वृद्धिगमनार्थयोः // 224 // डुमिंगट प्रक्षेपणे स्यात् शिंगट तनूकृतौ स्मृतः / उदन्तौ श्रवणे श्रृंट टुडेंट उपतापने . . // 225 // ऊदन्तः कम्पने धूगट् ऋदन्ताः पञ्च रूंगट। हिंसायां वरणे वृगट स्तूंगट् आच्छादनार्थकः // 226 // पृट् प्रीतौ स्मृट् पालने च गान्तस्तिगट हिंसने / कान्तौ शक्लंट शक्तौ स्यात्तिकट् तिगिव घान्तकौ // 227 // ष्टिघिट आस्कन्दने प्रोक्तः षघट् तिकिव धान्तकाः। . राधं साधंट संसिद्धौ ऋधूट् वृद्धौ हि पान्तकौ // 228 // तृपट प्रीणने व्याप्तौ त्वाप्लंट अथ भान्तकः / दम्भूट दम्भेऽथ वान्तौ द्वौ कृवुट् करणहिंसयोः / // 229 // 298