________________ अन्तकर्मणि षोंच स्यात् तक्षणे शोंच कान्तकः / शकींच मर्षणे चान्तः शुचुगैच् पूतितार्थकः // 196 // जान्तां रञ्जींच् रागेषु युजिच् समाधौ सृजिच् विसर्गार्थः / डान्तो व्रीडच् व्रीडे तान्तौ वरणे वृतूचि स्यात् // 197 // नृतैच नर्तने थान्तौ पूतिभावे कुथच् स्मृतः / पृथच् तु हिंसने दान्ताः खिदिच् दैन्ये पदिच् गतौ // 198 // विदिंच भुवि धान्ताः षट् गुधच तु परिवेष्टने / व्यधंच ताडने राधंच् वृद्धौ ज्ञाने मतौ बुधिच् // 199 // अनोरुधिच कामार्थः संप्रहारे युधिच वै। नान्ता जनैचि तु प्रादुर्भावेऽथ प्राणनेऽनिच // 200 // मनिंच ज्ञानेऽथ पान्ताः स्युः पुष्पच् विकसनार्थकः / क्षिपंच प्रेरणे दीप्तौ दीपैचि स्याद् शंपींच तु // 201 // आक्रोशे वैश्वर्ये तपिंच मान्सास्तिम ष्टिम ष्टीमच।। तीमच् तथाऽर्द्रभावे रान्ता घूरुङ् ज्वरैचि . // 202 // जरसि, गताविह धूरैङ् गूरैचि, स्तम्भने तु रैचि / तूरैचि तु त्वरायां घूराद्या हिंसनेऽपि स्युः // 203 // वान्ता उतौ षिवूच श्रिवूच गतिशोषयोनिरसने तु / स्यातां ष्ठिवू क्षिवूच द्वौ शान्तास्तु लिशिंच् अल्पत्वे // 204 // . काशिच् दीप्तौ वाशिच् शब्दे तापे क्लिशिंच षान्तौ द्वौ / इषच गमने क्षमायां मृषींच सान्तास्त्रसैच् भये // 205 // प्युसच दहने क्नसूच तु दीपनकौटिल्ययोः ष्णसूच इति / स्यानिरसने त्रयेऽमी हान्ताः षह षुह च शक्त्यर्थौ // 206 // बन्धे णहीच कथिताः षट्षष्टिरमी अथात्र पुष्यादिः / षान्तः पुषंच पुष्टौ चान्तः स्यादुचच समवाये - // 207 / / 296