________________ लेपे दिहीक धातुः शरणे तु दुहीक् उच्यते क्षान्तः / चक्षिक व्यक्ते वचने द्वाषष्टिरमी, अथ ादिः // 186 // हुंक् दानादनयो:स्यादीदन्तौ द्वौ विभीक् भये ह्रींक् तु / लज्जायामादन्तास्त्यागे त्वोहांक् अथौहांङक् // 187 // गमने मांङक् तु वे मानेऽपि डुदांगक प्रदाने डुधांगक् / स्याद्धारणे च रन्तत्रितयमिदं पोषणे च टुडु,गक् वै // 188 // पुंक पालनपूरणयोः अॅक् गतौ जान्तकौ तु णिचूंकी / स्यात्पोषशौचयोरथ विजूंकी इह पृथग् भवेत्षान्तः // 189 // विष्लूकी व्याप्ताविति चतुर्दश ह्यादिरथ रुदादिरयम् / दान्तो रुदृक् अश्रुप्रमोचने पान्त जिष्वपंक इति // 190 // शयनेऽथ नान्तसान्तावन श्वसक् प्राणने भवेत्क्षान्तः / जक्षक भक्ष्यहसनयोः सान्तौ दीप्तौ चकासृक् स्यात् // 191 // शासूक् अनुशिष्टौ स्यादादन्तो दुर्गतौ दरिद्राक् वै / रन्तो जागृक् निद्रापगमने रुज्जक्षपञ्चकं पूर्णम् // 192 // एवं स्युरदादिगणे सर्वे पञ्चाधिकाशीतिः (षटपदी) इति सद्गुरुवाग्देवीप्रसादमासाद्य हर्षकुलविहिते। कविकल्पद्रुमनाम्नि ग्रन्थेभूत्पल्लवस्तृतीयोऽयम् // 193 // . // 4 // दिवादिगणप्रकाशश्चतुर्थः पल्लवः // वान्ता दिवूच क्रीडायां जयेच्छायां पणौ द्युतौ / स्तुतौ गतौ च ईदन्ता प्रीङच् प्रीतावथो गतौ // 194 // ईङच्, पाने तु पीङच् स्यात् ऋदन्तौ जरसि स्मृतौ / जष् इष्च् अथ ओदन्ता दो छोंच च्छेदनार्थको // 195 // 25