________________ स्रंसूङ् भंसूङ्समो ध्वंसूङ् गतौ चेति त्रिविंशतिः / .. वृत् द्युतादिलादौ तु ज्वल दप्तौ हि तान्तकः // 153 // पतल स्याद् गमने थान्ता निष्पाकार्थे क्वथे मतः / मथे विलोडनार्थेऽथ पथे पत्लुसमार्थकः // 154 / / चान्तः कुच तु कौटिल्ये प्रतिष्टम्भे विलेखने / संपर्चनेऽपि दान्तौ द्वौ शदलं तु शातनार्थकः . // 155 // षल विशरणे गत्यवसादनार्थयोरपि। . मान्ता भ्रमू तु चलने टुवमूद्गिरणे मतः // 156 // क्रीडायां तु रमि स्याद्धान्तो बुध अवगमेऽथ लान्ताः स्युः / ट्वल टल वैक्लव्यार्थौ चल कम्पे ष्ठल स्थाने // 157 // बल तु प्राणनधान्यावरोधयोहल विलेखनार्थ: स्यात् / पल फल शल गत्यर्था हुल हिंसासंवरणयोश्च // 158 // ‘णल गन्धे जल घात्ये कुल संस्त्यानबन्धयोः / पुल तु विपुलत्वे शान्तः स्यात् कुशं तु आह्वानरोदनयोः // 159 // रान्तः क्षर सञ्चलने हान्तौ पहिं मर्षणे रुहं जनुषि। सान्तः कस गमने वृत् ज्वलादिरेकाधिकं त्रिंशत् // 160 // अथो यजादिर्देवार्चादानयोः सङ्गतौ यजी / इदन्तः ट्वोश्वि गमने वृद्धावेदन्तकास्त्रयः // 161 // हेंग स्पर्द्धारवयोः व्यग् संवरणे वेंग् तन्तुसन्ताने / दान्तो वचसि व्यक्ते वद पान्तो बीजसन्ताने // 162 // टुवपी सान्तस्तु वसं निवास इह हान्तको वहीं धातुः / / स्यात् प्रापणे नवेत्यथ घटादिरिह घटिष चेष्टायाम् // 163 // आदन्तः श्रां पाके ऋदन्तकः स्मृ गतस्तथाऽऽध्याने / ऋदन्तौ दृ तु भये न तु नयेऽथो चतुष्कान्ताः // 164 // 22