________________ महुङ् बहुङ् दृह दृहु बृह वृद्धौ बृह बृहु स्वनार्थौ च / उह दुह तुह् अर्दनार्था रह त्यागे / // 141 // अर्ह मह पूजनार्थो चह शाठ्ये बर्हि बल्हि युग्मं तु / . परिभाषणे हिंसाच्छादनेष्वथो क्षान्तका एते // 142 // त्वक्ष त्वचने सूर्थ्य त्वनादरे मक्ष सङ्घाते / अक्षौ व्याप्तौ च भवेत्तक्षौ त्वक्षौ तनूकरणे // 143 // उक्ष तु सेके वक्ष तु रोषेऽथो चुम्बने भवेद् णिक्ष / स्तृक्षयुततृक्ष तु गमनार्थे पालने रक्ष // 144 // काक्षुयुतवाक्षु माक्षु तु काङ्क्षायां घोरवासितार्थं च / द्राक्षु ध्राक्षु ध्वाक्षु त्रयं भवेद् वृक्षि वरणार्थः // 145 // धिक्षि धुक्षि क्लेशने संदीपने जीवनेऽपि च / ... दीक्षि मौण्ड्ये व्रतादेशेज्यासूपनयने यमे // 46 // शिक्षि तु विद्याग्रहणे याञ्चायां भिक्षि दर्शने त्वीक्षि / म्लक्षी अदने दक्षि तु शैयै वृद्धावितीह शतनवकम् // 147 // षट्त्रिंशदधिकमुक्तं धातूनामिदमथ द्युतादिगणः / द्युति दीप्तौ चान्तो रुचि अभिलाषे च त्रयष्टान्ताः // 148 // घुटि तु परिवर्तने रुटि लुटि च प्रतिघात इह दान्ताः / जिभिदाङ् स्नेहार्थे क्ष्विदाङ् विदाङ् मोचने च जीतौ द्वौ // 149 // भान्ताः क्षुभि सञ्चलने शुभि दीप्तौ णभि तुभिं द्वयं प्रमये / संभूङ् विश्वसनार्थे प्रोक्तस्तान्तौ श्विताङ् वर्णे // 150 // वृतूङ् वर्तने दान्तः स्यन्दौङ स्रवणार्थकः / धान्तौ वृधूङ वृद्धौ स्यात् शृघूङ पायुजे खे // 151 // पान्तः कृपौङ सामर्थ्य वृतादिरथ ठान्तकाः / लुठिवल्लुठि शान्तस्तु अंशूङ् संसेऽथ सान्तको // 152 // . . . 281