________________ // 11 // // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // सक्रियश्चाऽक्रियो भावः, सक्रियोपि च पुद्गलः / अक्रियोऽनन्तनिस्संख्य-प्रदेशात्मा द्विधा मतः अनन्तोपि वियत्काल-भेदात्संख्यातिगस्तथा / धर्माधर्मभिदा द्वेधा, वियल्लोकादलोकता निश्चयव्यवहाराभ्यां, द्वेधाऽनेहा अपि स्मृतः / लोको जीवादजीवाच्चा ऽलोको-ऽसंख्योपनन्तकः षोढा हानिविवृद्धिभ्यामलोकस्थं वियद् द्विधा / धर्मोधर्मश्च पूर्णोऽन्यः, सूक्ष्मोऽनणुश्च पुद्गलः जीवोऽपि सिद्धः संसारी, सिद्धो ज्ञानी च दर्शनी। पोढा हीनोऽथवा वृद्धः, सान्तरो वाप्यनन्तरः त्रस:स्थिरो वा संसारी-त्यादिर्वस्तु द्विरूपताम् / भाव्या पृथक्त्ववीचारा-दिच्छानाशाय सात्त्विकैः कषायकलुषश्चात्मा, यावन्न विषयांस्त्यजेत् / . तावनेच्छाविनाशः स्यात्, प्रकाशोपि च वास्तवः भावनैस्तदनित्यायै-र्भावस्यापचयं चयम् / पश्यतः करकण्डुव-नश्येदिच्छा विरागिणः कामस्थानानि कामिन्यं-स्तास्त्याज्यास्तज्जिगीषया। सर्वास्त्यक्तुमशक्तो यः, स स्वीयामेव कामयेत् मद्यं मांसं नवनीतं, मधु नानारसात्मकम् / अभक्ष्यं वर्जयेत्सर्वं, कामं संतर्जयेत् सुधीः बाहानाध्यात्मिकान् हेतूं-स्त्यजन्नेवमधार्मिकान् / केवलब्रह्मणः स्वादं, लभते सुकृती कृती // 16 // // 17 // // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // 187