________________ ॥सप्तदशोऽध्यायः // 17 // श्री गौतम उवाच ऐक्यं प्रपश्यतस्तत्त्वात्, स्वामिस्तनुभृतो न तु / विधेयमविधेयं वा किञ्चित्रैव प्रभासते एवं सति न देवः स्यात्, सेव्यःकश्चिन्न वा गुरुः। न धर्मः शर्मणे कार्य-स्त्याज्योऽधर्मश्च कश्चन // 1 // . // 2 // - श्री भगवानुवाच // 3 // // 4 // // 6 // साध्यार्थी यतते सर्वः, साधने निर्विबाधने / साध्ये ब्रह्मणि तत्कार्यः कामनाशोऽस्य बाधनः मायापि ब्रह्मरूपैव, तद्विवर्तमयी स्वयम् / सत्त्वात्तथार्थकारित्वात् प्रपञ्चोऽस्याः विजृम्भते भास्वन्मणिप्रदीपादेः, प्रभानैकान्ततोऽपरा / न धर्मिणः परा सत्ता, धर्माणां सर्वथा क्वचित् प्रपञ्चजननान्माया-पीच्छामात्मनि वर्द्धयेत् / तस्या निवृत्तये भाव्या, व्युत्पादविगमावपि एकं मौलनयात्तत्त्वं, स्यात्सत् गौणनया द्विधा / एकस्मिन् भूरुहे नाना, मूक्तं पुष्पं फलं दलं एकं यत्तदनेकं स्या-त्सदसत्भिन्त्रमन्यथा / अनित्यं नित्यमाख्येय-मनाख्येयं जगद् द्विधा लोकोलोकस्तथा जीवो, ऽजीव:परोऽपरःपुनः / रूप्यरूपी जडो दक्षः, प्रत्यक्षो वा परोक्षक: स्त्रीपुंसौ द्रव्यपर्यायौ, शब्दोऽर्थोप्यशुभं शुभम् / रात्रिदिनं क्रियाज्ञान-मेवंभावोभयी गतिः // 7 // // 8 // // 9 // / 10 // 186