________________ // 10 // // 11 // // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // चैतन्यशक्त्याविष्टः स-ब्रावो जीव इति स्मृतः / तदभावादजीवोऽन्यः, ख्यातेयं कल्पना भुवि .. जीवोप्यजीवोऽजीवज्ञः, इति प्रवचने वचः / अजीवो जीवसंज्ञेय-स्तात्स्थ्यात्तव्यपदेशतः सूरबिम्बेपि सूरत्वं, लोके लोकोत्तरे स्फुटम् / अजीवे स्थापनाजीवः, निक्षेपस्तेन संगतः शिवो जीवोऽभवत्प्राणै-र्जीवोजीवोपि पुद्गलः / दशप्राणैरभावेन, स्थावरे जीवता क्वचित् जीवो ज्ञानसदंशस्य, प्राधान्यात्सत्त्वनामभृत् / अजीवः सत्त्वयोगेपि, तन्निषेधादचेतनः उपादानं चेतनायाः, जीवोऽजीवो निमित्तकम् / तेनाऽशुद्धाशनात्साधु-श्चौर्यचर्यापरोऽभवत् रूपं स्यान्नीलपीतादि, तद्योगे रूपवानणुः। . अणुसंबन्धतो जीवो-प्ययं रूपि कथञ्चन रूपी सिद्धोपि तद्ज्ञानात्, खं रूपि स्यात्तदाश्रयात् / अलोकेपि वियदूपि, लोकखात् सर्वथाऽभिदः यथाक्षिदेशे भावेक्षी, चक्षुष्मान् जीव उच्यते / लोकाकाशे जीवसत्त्वात्, तथाऽलोकः सचेतनः यथाक्रमेण सिद्धं स्या-द्वान्यं वा साधकं जने। ' तथात्मनः सिद्धतापि, क्रमात् साधकताभृतः शिवेऽपरपरिणामा-पेक्षया सिद्धताऽक्षया / स्वपर्यायाऽगुरूलघु-वृत्त्या साधकता पुनः एवं भावाभावरूपं, द्वैविध्यं तद्विकल्पजम् / भुक्ताभावैक्यमालोक्यं, पारमैश्वर्यसिद्धये 185 // 16 // // 17 // // 18 // // 19 // // 20 // // 21 //