________________ // 9 // // 10 // // 11 // // 12 // // 13 // // 14 // उत्पादो वा विपत्तिश्च, द्रव्येऽवस्थान्तरोदयात् / नावस्था तद्वतो भिन्ना, सर्वथाश्रयवजिता न संबन्धं विना किञ्चित्, प्रकाश्यं स्यात्प्रकाशकैः / न सर्वथा स संबन्धि-भेदे वाचकवाच्यवत् सूर्यः प्रांतर्यथा रत्न-जलादर्शादि वस्तुषु / संक्रामस्तापवत्सर्वं, कुरुते गुरुतेजसा एकस्तथैव सद्भावः, स्वैर्विवतैः प्रवर्त्तते / हेयोपादेयता बुद्धि-स्त्याज्या सांसारिकी ततः स्वं परं लघु वा स्थूलं, न शुभं नाशुभं हृदि / त्याज्यं ग्राह्यं न किञ्चित्स्या-द्विधेरैक्ये सुबुद्धिवत् मान्यं यथान्ये सामान्यं, स्यादेकं व्यक्तिषु स्फुटम् / एको वा समवायोप्य-वयव्यवयवादिषु जैना अपि द्रव्यमेकं, प्रपन्ना जगतीतले / धर्मोऽधर्मोऽस्तिकायो वा, तथैक्यं ब्रह्मणे मतम् लोकालोकाप्तमाकाशं, परिणाम्येकमात्मना। . तथा कथा न वितथा, स्यादेकब्रह्मणः सतः स्याद्भाव एक एवाय-मस्ति प्रत्ययगोचरः / तल्लक्षणो निषेधोपि, सविधेः सविधे खलु सत्तां विना नासत्ता स्या-त्राजीवो जीववर्जने / यत्वादिगुणैरेवं, नभावो भावतोऽपरः विधिविधत्ते स्वं रूपं, स्वेन विश्वेन संगतम् / विधिर्वेद्यो जगत्कर्ता, भर्ता हर्ता स्वशक्तितः एकस्य ब्रह्मणःसर्वे, विवर्ताः प्रतिभान्त्यमी / अनन्तशक्तेर्नानाऽर्थाः, क्रियाभावेन वास्तवाः 183 // 15 // // 16 // // 17 // // 18 // // 19 // // 20 // . .. . 183